अमरीका, आस्ट्रेलिया और पश्चिम के देशों में जहां स्वर्ण एक पीली धातु मात्र है़ जो मूल्यवान है और वह किसी भी देश के लिए उसकी अर्थव्यवस्था में मेरुदंड है। जबकि भारत में स्वर्ण धातु की पहचान भारत की संस्कृति के साथ है। स्वर्ण के प्रति हमारी आस्था दूसरे देशों के मुकाबले बिलकुल भिन्न है। ऐसे में स्वर्ण धातु को भारत में अर्थ का पहिया कैसे से बनाया जा सकता है ?
एक ओर यह संकट है तो दूसरी ओर स्वर्ण की शुद्धता का संकट है। स्वर्ण में उसकी तरह चमक वाले केडनियम का मिलावट बहुत जोर पर है। अब शुद्ध सोना बाजार में मिल जाए यह सौभाग्य का विषय है। स्वर्ण धातु की ऐसी हालत बनाने में बाजार के साथ – साथ सरकार की नीतियों भी उतनी ही दोषी है।
पिछले कुछ वर्ष में सरकार ने स्थित संभालने के लिए कई प्रकार के गोल्ड स्कीमें जारी की। शुद्ध स्वर्ण के लिए सरकार ने अशोक चक्र के निशान वाले सोने के सिक्के बाजार में उतारे हैं, जिनकी शुद्धता की गारंटी है। यह सब इसीलिए किया गया है क्योंकि भारत में इसे पवित्रता और आर्थिक सुरक्षा की गारंटी के रूप में माना जाता है। हमारे लिए सोना लक्ष्मी का प्रतीक है, संपन्नता का सूचक है। थोड़ा-सा पैसा जमा होते ही हर भारतीय सोना खरीदना चाहता है। इस मामले में शिक्षित-अशिक्षित तथा संपन्न-निर्धन में सोच का कोई फर्क नहीं है। हिंदुओं में अक्षय तृतीया और धनतेरस पर्व तो सीधे – सीधे स्वर्ण खरीद से जुड़ गया है। पहले गऊमाँ की खरीद होती थी क्योंकि वह भी लक्ष्मी है। लेकिन व्यापारियों ने स्वर्ण को इतना प्रचारित कर दिया है कि गऊमाँ की खरीद लगभग समाप्त हो गई है। अब तो शायद ही किसी को पता है कि धनतेरस मूलत: गऊमाँ का पर्व है। मंदिरों में सोना अर्पित करने की हमारी परंपरा सदियों पुरानी है। इसी कारण कई बड़े मंदिरों के पास अकूत स्वर्ण भंडार थे। कहा जाता है कि तिरुपति बालाजी मंदिर के पास लगभग एक हजार टन सोना है। अभी वास्तव में कितना है कहना मुश्किल है क्योंकि जब से मंदिर में सरकार का हस्तक्षेप शुरु हुआ है तब से मंदिर की संपत्ति संदेह के घेरे में है। बालाजी के पास इतना धन था कि देश का आयात बिल भरने को प्रयाप्त था।
हिंदू ही नहीं सिख, जैन और बुद्ध धार्मिंक स्थल भी स्वर्ण नक्काशी और भंडार के लिए विख्यात हैं। इनमें अमृतसर के स्वर्ण मंदिर, वेल्लूर का लक्ष्मी मंदिर, कर्नाटक के बौद्ध मठ और अजमेर के जैन मंदिर का नाम उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है।
आज दुनिया का एक चौथाई सोना अकेले भारत के लोग खरीदते हैं। चालू खाते के घाटे पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र सरकार ने सोने के आयात को नियंत्रित करने का प्रयास किया लेकिन अब तक अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है। वित्त मंत्री ने स्वर्ण आयात शुल्क बढ़ाकर ढाई गुना कर दिया है। फिर भी मांग कम नहीं हुई है। दुनिया और भारत के स्वर्ण बाजार में आज खासा अंतर है फिर भी शादी-ब्याह शुरु होते ही लोग स्वर्ण-चांदी आभूषण खरीदने लगते हैं। भारत में किसी शादी का तीस से पचास प्रतिशत खर्च अकेले जेवरों पर होता है। गरीब या अमीर सभी अपनी ताकत के हिसाब से शादी में आभूषण देते हैं।
बाजारी अर्थशास्त्र के जानकार लोगों को सोने के बजाय शेयर बाजार में पैसा लगाने का पाठ पढ़ाते हैं, वे घर लौटकर अपनी बचत के बड़े हिस्से से बीवी – बच्ची के लिए गहने गढ़वाते हैं। सोने के सिक्के खरीदकर रखते हैं। महिलाओं के लिए तो सोना संकट के समय के लिए असली बीमा है। कानूनन भी आभूषण स्त्री-धन की श्रेणी में आता है। उन पर विवाहिता का एकाधिकार होता है।
देश का मौजूदा स्वर्ण भंडार बीस से चालीस हजार टन के बीच हो सकता है। जिसका सत्तर फीसद हिस्सा गांवों-शहरों में रहने वाले करोड़ों लोगों के पास है। रिजर्व बैंक के पास तो मात्र ५५७.७ टन सोना है। यह हमारी मुद्रा की स्थिरता के लिए आवश्यक है। जनता की सोने की भूख के कारण ही सरकार को हर साल सैकड़ों टन सोना आयात करना पड़ता है। पिछले छह बरस में चालू खाते का घाटा बढ़कर कई गुना हो जाने का एक प्रमुख कारण सोने का भारी आयात भी है। हमारे देश में सोना खरीदना और उसे पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित रखना हमारी संस्कृति का हिस्सा है।
भारत की जनता के पास जमा सोना सैकड़ों वर्षों की मेहनत का परिणाम है, जबकि अमेरिका और यूरोपीय देशों का स्वर्ण भंडार उनके साम्राज्यवादी शासन और लूट का हिस्सा है। इतिहास देखें तो भारत ने मौर्य वंश (३२५-१८५ ईपू) के शासन काल में अकूत स्वर्ण भंडार जमा कर लिया था। सोलहवीं सदी तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद दुनिया में सर्वाधिक था, जबकि दो सदी तक चीन के बाद दूसरे नम्बर पर। यह वह दौर था, जब हिंदुस्तान को सोने की चिड़िया कहा जाता था। दो सौ साल के ब्रिटिश राज के दौरान सोने की चिड़ियां को फिरंगियों ने नोच कर ब्रिटेन ले भागा। फिर भी भारत की जनता का सोने से लगाव कम नहीं हुआ, यही हमारी संस्कृति है।
आज अमेरिकी सरकार के पास बीस हजार टन स्वर्ण भंडार है, जिसके बल पर वह दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक व सैन्य शक्ति बना हुआ है। उसकी मुद्रा ‘डॉलर’ को दुनिया की रिजर्व करंसी का सम्मान प्राप्त है। पिछली सदी के तीसवें दशक में जब मंदी ने पूरी दुनिया को चपेट में ले रखा था, तब अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रुजवेल्ट ने सोने का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। तब से जनता को सोना रखने का अधिकार नहीं रहा। १९७६ में जनता को फिर सोना खरीदने और रखने की छूट दी गई लेकिन तब तक अमेरिकियों को शेयर बाजार में पैसा लगाकर कमाने की लत लग चुकी थी। आज वहां दो-तिहाई लोगों की बचत का पैसा स्टॉक मार्केट में लगा हुआ है। दूसरी तरफ भारत है, जहां मात्र ३ प्रतिशत लोग शेयर बाजार में पैसा लगाते हैं। वह भी हृदय की धड़कन को तेज कर।
भारत देश की जनता बचत का दो-तिहाई धन सोना और जमीन-जायदाद खरीदने में लगाती है। पश्चिमी देशों में सोना खरीदने पर लोग बचत का केवल तीन प्रतिशत धन खर्च करते हैं। भारतीय सांस्कृतिक मूल्य बचत करना और बचत का पैसा सुरक्षित मद में लगाना सिखाते हैं। प्राचीन धार्मिंक, आर्थिक और सामाजिक शिक्षा के अनुसार निवेश का सर्वाधिक सुरक्षित माध्यम सोना है। यह धारणा आज भी है। हमारी संस्कृति ने हमें आर्थिक रूप से भी बचा रखा है। नमन है ऐसी संस्कृति को।