आज संसार में जितने भी तकनीक हैं उनका आधार और मूल दस्तावेज कहीं न कहीं संस्कृत भाषा में है। कारण ; पश्चिम के उदय के पूर्व संसार में विद्या-उपार्जन के लिए लोगों को भारत आना पड़ता था और वे संस्कृत ही पढ़ते थे। नालंदा, तक्षशिला और ऐसे कई विश्वविद्यालयों के दस्तावेज बताते हैं कि उन दिनों भारत में १८ प्रकार के विषयों की पढ़ाई की जात्ी थी। जिनमें से आयुर्वेद एक प्रमुख विषय था, जिसमें जीवन को बढ़ाने का विज्ञान पढ़ाया जाता था। इसी प्रकार भूगोल, मौसम विज्ञान, धातु विज्ञान, मिट्टी विज्ञान, लकड़ी विज्ञान, कृषि विज्ञान, विमानशास्त्र, गति विज्ञान, गणित आदि पढ़ाये जाते थे। अर्थात् भारत में वे सभी विषय थे जो आज के विध्वंशकारी विज्ञान के पास है। इतना ही है कि उनके रूपों को बदला गया है और भाषा बदली गई है। तो क्या आज फिर से पूर्व की भाषा में पढ़ाई नहीं कर सकते ?
यहां पर प्रश्न है कि आज फिर से भाषा को बदलने की क्या जरुरत ? जरुरत यह है कि जब तक ज्ञान संस्कृत माध्यम से दी जाती रही तब तक विज्ञान के पास विकास की आंखें थी और जैसे ही विज्ञान को यूरोप के लुटेरों की भाषा (अंगरेजी) में लाई गई, यही मानव जीवन का विज्ञान विनाश में बदल गया। आज उसी का परिणाम है कि प्रकृति पर विज्ञान का संकट आया हुआ है। हमारी गलतियों के कारण बाढ़ आती है, सूखे पड़ते हैं, सुनामी आती है, भूवंâप आता है। आदि …।
संस्कृत आयोग का सुखद आनंद हमें तभी मिल सकता है जब उसे हम पूर्व की तरह सम्मान की दृष्टि से देखें। संस्कृत को फिर से तकनीक की भाषा बनाएं। आज भी उसमें संपूर्ण ज्ञान है। बस हमें पहल करने की जरुरत है। हालांकि इनमें ज्यादातर सिफारिशें वही हैं, जो १९५६ में पहले संस्कृत आयोग ने पेश की थीं। तब से लेकर अब तक पढ़ाई – लिखाई का तरीका काफी कुछ बदल गया है। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों पर जोर दिया जाने लगा है। भारतीय भाषाओं की पढ़ाई – लिखाई को भी रोजगारपरक बनाने की जरूरत रेखांकित की जा रही है। ऐसे में यह सही समय है कि संस्कृत को भारत सरकार की राज भाषा और तकनीक भाषा बनाने की ओर पहल किया जाए। आयोग ने सुझाव दिया है कि छठवीं से लेकर दसवीं कक्षा तक अनिवार्य रूप से संस्कृत पढ़ाई जाए। इससे सुंदर और क्या विचार हो सकता है ?
इसी तरह तकनीकी संस्थानों में भी संस्कृत पढ़ाने की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि विद्यार्थी प्राचीन संस्कृति और उसकी तकनीकी – वैज्ञानिक उपलब्धियों से परिचित हो सके। संस्कृत आयोग का मानना है कि तकनीकी, प्रबंधन आदि संस्थानों में फिलहाल पढ़ाए जाने वाले विषय पश्चिमी ज्ञान और अनुभवों पर आधारित हैं, इसके चलते विद्यार्थियों में अनुशासन और समझ की कमी है। संस्कृत के जरिए भारतीय संस्कृति की शिक्षा से विद्यार्थियों में आत्मविश्वास बढ़ेगा और उनकी समझ किसी सीमा में बंधी नहीं रहीगी।
आयोग ने ऐसी विशेष प्रयोगशालाएं स्थापित करने का भी सुझाव दिया है, जिनमें विद्वान और वैज्ञानिक मिल कर वैदिक वैज्ञानिक प्रथाओं, यज्ञों की वैज्ञानिकता उपयोगिता और उपचार तथा वर्षा की समरुपता आदि के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों आदि का अध्ययन कर सकें। यह सरकार के कृत्यों से दिखलाई भी पड़ रहा है। मोदी सरकार ने शुरुआती दिनों में ही वैकल्पिक तीसरी भाषा के तौर पर स्कूलों में पढ़ाई जा रही जर्मन को हटा कर संस्कृत पढ़ाने का फैसला किया था। इसके चलते जर्मन सरकार के साथ उसका कुछ टकराव भी हुआ था।
आज के भारत में कुछ भी सार्थक रूप से किया जाए किसी न किसी वर्ग का विरोध झेलना ही पड़ता है अत: संस्कृत को लागू करने पर भी ऐसे विरोध तो झेलने ही पड़ेंगे। उसकी तैयारी सरकार को कर लेनी चाहिए। साथ ही साथ संस्कृत को आज के विज्ञान के अनुरुप उत्तरमुखी बनाने के प्रयास भी कर देने चाहिए।
इनमें से कुछ उदाहरण हो सकते हैं। जैसे १) चिकित्सा विज्ञान को संस्कृत में पढ़ाने की व्यवस्था कर एक उदाहरण पेश किया जा सकता है। क्योंकि आज भी आयुर्वेद के सभी सूत्र मूल रूप में संस्कृत में ही पढ़ाये जाते हैं। २) ज्यौतिष गणित भी एक ऐसा ही विषय है जिसे आज भी मूल रूप में संस्कृत में ही अभ्यास किया जाता है। ३) आज भी वैदिक गणित के अभ्यास किए जाते हैं जहां पर सारे सूत्र संस्कृत में ही हैं।