वेद प्राचीन भारत का विज्ञान है। यह केवल भारत के संदर्भ में ही अवतरित किया गया हो ऐसा भी नहीं है। यह तो विश्व मात्र के कल्याण के लिए ब्रह्मकणों द्वारा रचित है। इनकी भाषा संस्कृत है। वेदों में दुनिया का प्राचीनतम विज्ञान और दर्शन है। ज्ञान और विज्ञान की पूर्वज सिद्धि ही वेद प्रसिद्धि का मूल है।
संस्कृत में शब्द बाद में आए, पहले श्वर आया। इसीलिए वेदों की ऋचाएं श्वर में है। शब्दों में उनके भाव नहीं है। शब्दों से तरंगें उत्पन्न नहीं होती, वे श्वर से उत्पन्न होती हैं। इन्हीं तरंगों से भौतिक विश्व को गति है। आज भी इन्हीं तरंगों को मशिनों द्वारा कार्य में लाई जा रही है। इसलिए उन तरंगों की सीमा है। पहले तरंगें अनंत थी, अनंत कार्य में उपयोगी थी। अब केवल विध्वंश में उपयोगी है। सकारात्मक कार्य में तो तब आ सकती हैं जब उस पर प्रज्ञा सवार हो। प्रज्ञा मानव मन के अंतरवास में है। मशीन प्रज्ञा से अंजान है। अत: आज कल तरंगें विकास में कार्यरत नहीं है। यही कारण है कि आज का भौतिक विकास हमें विनाश की ओर ले जा रहा है।
आज संदर्भ यह है कि संस्कृत आयोग ने वैदिक कथनों की वैज्ञानिक सिद्धि के लिए विशेष प्रयोगशालाओं की मांग की है। आयोग कांग्रेसी नेतृत्व वाली दूसरी यूपीए सरकार ने गठित किया था। इसकी रिपोर्ट अब आई है जिसमें कहा गया है कि संस्कृत शिक्षा को सभी विषयों की समझ के लिए अनिवार्य बनाना चाहिए। अच्छा हुआ कि इसका प्रतिपादन कांग्रेस के समय में हुआ था। वरणा यह भी भगवे राजनीति का शिकार हो जाता। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान – विज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से जांचने की जरुरत है। इस कसौटी पर सर्वप्रथम ऋग्वेद की जांच करने की जरुरत पड़ रही है। क्योंकि उसमें सृष्टि के निर्माण की गुत्थी है।
अभी तक आधुनिक विज्ञान ने यूनानी दर्शन को प्राचीन माना जाता है। यूनानी दार्शनिक थेल्स ने लगभग ६०० वर्ष ईसा पूर्व जल को आदि द्रव्य माना था। परवर्ती दार्शनिकों ने वायु, अग्नि आदि को। हिराक्लट्स का जोर अग्नि पर दिया था। थेल्स के विचार ऋग्वेद में हैं। हिराक्लट्स के विचार कठोपनिषद् में। सामान्य मत – मजहब की तरह वैदिक विचारधारा भी किसी व्यक्ति विशेष को संसार का निर्माता नहीं बताती। ऋग्वेद के ऋषियों ने सृष्टि उगने के पहले देवों का अस्तित्व भी नहीं माना है। ऋषि देवों के भी पहले के समय का अध्ययन कर रहे थे। उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था। विज्ञान में उपकरण नहीं दृष्टिकोण की ही सवरेपरि महत्ता है।
ऋग्वेद के समय जनजीवन प्राकृतिक था। ऋषि नदियों के तट पर रहते थे और ऊर्जा के लिए ध्यान सूर्य पर केन्द्रीत रहता था। वे प्रश्न करते हैं कि सूर्य बिना आधार ही आकाश में कैसे लटका हुआ है? यहां पर धार्मिक उत्तर होगा ईश्वर की कृपा से। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण में इसका भौतिक उत्तर जरूरी है।
ऋषि विश्व के अनंत विस्तार पर प्रश्न करते हैं, मैं इस भुवन का केंद्र जानना चाहता हूं – ‘‘प्रच्छामि त्वां भुवनस्य नाभि:’’? वे इस संसार को समूचे अस्तित्व का एक चौथाई भाग ही बताते हैं, शेष भाग को अन्य लोक कहते हैं। उनके प्रयोग विरल रहे होंगे। सृष्टि शून्य से नहीं उगी। उग सकती भी नहीं। वे सृष्टि के पूर्व की आनंद-मगन र्चचा करते हैं-तब रात नहीं। दिन नहीं। मृत्यु नहीं। केवल ‘‘वह’ है।
वैदिक ऋषियों का ‘‘वह’ बड़ा प्यारा है। ‘‘वह’ अपनी क्षमता के कारण वायुहीन स्थिति में भी सांस लेता है। ‘‘वह’ सर्वनाम है। व्यापक और अनंत को कोई भी नाम देना सीमित करना है। असीम को ससीम करें तो विज्ञान-विरोधी होंगे। उपनिषद् में भी ‘‘वह’ है। रस रूप। वह सर्वत्र है। सबको आच्छादित करता है। आवृत करता है। छंदस् और ऋतस् होता है। प्रतिपल पुनर्नवा। चिरंतन और सनातन। सतत् विकासमान। इसलिए इसका नाम ब्रह्म भी है। यह ब्रह्म सामने है। पीछे हैं। दाएं है, बाएं है। ऊपर और नीचे है।
संस्कृत भारतीय प्राचीन विज्ञान की भाषा है। संस्कृत विरल है। संस्कृत प्रकृति की शक्तियों से भी संवाद की भाषा है। नदियों से संवाद ऋग्वेद का प्रतिष्ठित अंश है। संस्कृत बोध में पृर्वी माता है। जल माताएं हैं। ऐसी अभिव्यक्ति संस्कृत में ही संभव है। संस्कृत ही भारतीय संस्कृति और प्राकृत्य विज्ञान की अभिव्यक्ति है।
योग भारत का प्राचीन विज्ञान है। संस्कृत में उगा। खिला, विश्वव्यापी हुआ। अभिनय कला पर भरत मुनि ने संस्कृत में नाट्य शास्त्र लिखा। दुनिया का प्राचीनतम अर्थशास्त्र संस्कृत में ही उगा पहली बार। आयुर्विज्ञान संस्कृत में प्रकट हुआ। ज्ञान-विज्ञान और कला-कौशल सहित राष्ट्रजीवन के सभी अनुशासन संस्कृत में ही प्रवाहमान हुए। संस्कृत एक संस्कृति भी है। इसी के कारण हम एक राष्ट्र हैं।
ब्रह्मांड बड़ा है, अनंत और अंतहीन। संस्कृत में इसे कहने के लिए ‘‘विराट’ शब्द आया। भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति है। जगत् विराट है। संस्कृत विराट अभिव्यक्ति का भी उपकरण है। इसके उत्थान के लिए रिपोर्ट आया है, बड़ा ही स्वागत योग्य है।
बेहतर हो संस्कृत को फिर भारत की राज भाषा बनाई जाए। हिन्दी के स्थान पर संस्कृत यदि राज भाषा बनी तो भाषा की लड़ाई ही समाप्त हो जाएगी। भारत के दस्तावेजों की संरक्षा भी हो पाएगी। आज भी संस्कृत में संस्कृति है, फिर से स्थापित हो जाएगी। आज भी संस्कृत में विज्ञान है, देश में प्रकृति के विज्ञान का बोल – बाल हो जाएगा। आज भी संस्कृत में चिकित्सा है। हम भारत के लोग निरोगी हो जाएंगे। ऋषियों के सारे विज्ञान संस्कृत में ही हैं। वे अजर – अमर हो जाएंगे।