चेन्नै। आज केवल भारत में ही नहीं संसार के मानचित्र पर ईसाई समुदाय की जनसंख्या तेजी के साथ बढ़ रही है इसके पीछे के कारणों को टटोलें तो स्पष्ट दिखलाई देता है कि यह तो यूरोप का विस्तार ही है जिसे विश्व के कई देश की सरकारें समझ नहीं पा रही है। यह संसार धीरे – धीरे एक ऐसे ही अंतरजाल में पंâसता जा रहा है जहां पर विनाशकारी भौतिकतावदी की पहचान रह जाएगी।
इस संबंध में राजनैतिक विश्लेषक बनवारी लिखते हैं कि यूरोप के पास विश्व की अपनी ६.८ प्रतिशत भूमि ही है। पोप एलेक्जेंडर षष्टम ने ४ मई १४९३ को एक आदेश जारी किया। ‘पैपल बुल’ के रूप में प्रसिद्ध इस आदेश के द्वारा उन्होंने स्पेनी और पुर्तगाली शासकों को यह अधिकार दिया कि वे विश्व के पूर्व और पश्चिम नए क्षेत्रों को खोजें, उन्हें विजित करें, उन पर अपना आधिपत्य स्थापित करें और उन्हें ईसाई बनाएं।
इसके परिणामस्वरूप अमेरिका की दस करोड़ आबादी का लगभग सफाया करके यूरोप ने उस पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। अठारहवीं शताब्दी में दक्षिणी अमेरिका में गुलामों की स्थिति को लेकर जो बहस हुई थी, उसमें चर्च की ओर से उनके गुलाम होने को गौण और ईसाई होने को प्रधान बताते हुए गुलामी की व्यवस्था का समर्थन किया गया था। अमेरिकी कोर्ट आज भी उस पैपल बुल के आधार पर गोरे लोगों के स्वामित्व को दी जाने वाली चुनौतियों को अस्वीकार कर देते हैं।
पिछले पांच सौ वर्षों में यूरोपीय जाति ने विश्व-भूगोल में अपने ६.८ प्रतिशत भाग को बढ़ा कर लगभग चालीस प्रतिशत कर लिया है। आज उसके नियंत्रण में विशाल अमेरिकी महाद्वीप है, जो विश्व-भूगोल का २८.५ प्रतिशत है। इसी के बाद उन्होंने फिर ऑस्ट्रेलिया को समेट लिया, जो विश्व-भूगोल का ५.९ प्रतिशत है। अमेरिका के एक स्वतंत्र देश घोषित होने से पहले यूरोप को वहां से सत्रह सौ टन सोना और तिहत्तर हजार टन चांदी प्राप्त हुई थी।
अपने इस भौगोलिक विस्तार के आधार पर यूरोपीय जाति पिछले ढाई सौ वर्षों में अपनी आबादी दस गुना बढ़ाने में समर्थ हो गई है। यह वृद्धि किसी भी और जाति से अधिक है। हालांकि पिछले पचास-साठ वर्षों में अन्य जातियों ने भी अपनी जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि की है। लेकिन जहां अन्य जातियां अपने परंपरागत क्षेत्र में ही सीमित हैं, यूरोपीय लोग एक विशाल क्षेत्र में फैल गए हैं और आधी से अधिक जनसंख्या यूरोप से बाहर फल-फूल रही है। विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका में संपन्नता सबसे अधिक है और जनसंख्या का घनत्व सबसे कम। भारत में एक वर्ग किलोमीटर में ३८३ लोग रहते हैं तो अमेरिका में केवल ३२ व्यक्ति। ऑस्ट्रेलिया का घनत्व तो और भी कम है और संपन्नता यूरोप में बसे लोगों से अधिक।
आज अमेरिका और यूरोप का आर्थिक वर्चस्व है, कल नहीं रहेगा। चीन एक आर्थिक शक्ति के रूप में चुनौती बन गया है। कल भारत भी इस दौड़ में आगे बढ़ते हुए बराबर की शक्ति होगा। इस तरह पिछली दो शताब्दियों की औद्योगिक क्रांति से हुई आर्थिक प्रगति ने जो असंतुलन पैदा कर दिया है वह कुछ सीमा तक दूर हो जाएगा। भारत और चीन, जहां विश्व की सैंतीस प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, औद्योगिक विकास में आगे बढ़ेंगे तो विश्व लगभग एक जैसा दिखने लगेगा।
यूरोपीय जाति का यह भौगोलिक विस्तार अनदेखा नहीं किया जा सकता। न सिर्फ उसकी आर्थिक समृद्धि, उसकी सामरिक अजेयता भी उसी पर टिकी हुई है। आज अमेरिका ही यूरोपीय जाति की अग्रणी सामरिक शक्ति है। इस शक्ति का उदय जघन्य पाप से हुआ है। इस पाप की स्मृति न केवल गैर-यूरोपीय लोगों में बनी रहेगी बल्कि यूरोपीय बौद्धिक जगत भी अपने इतिहास के इस पाप की ग्लानी से मुक्त नहीं हो पाएगा। अमेरिका इसीलिए जातीय मिश्रण की बात सबसे अधिक करता है, हालांकि उससे वह उतना ही डरता भी है।
आज यूरोपीय जाति की वृद्धि दर थम गई है। औद्योगिक जीवन शैली का यह अवश्यंभावी परिणाम है। लेकिन विश्व की अन्य जातियों की जनसंख्या अब भी बढ़ रही है और अनेक की बहुत तेजी से। इस बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए भूमि की उपलब्धता सिकुड़ती जा रही है, जबकि यूरोपीय जाति को औरों से कहीं अधिक भूमि उपलब्ध है। यूरोपीय जाति ने अपने अधिकार के क्षेत्र की किलेबंदी कर रखी है। वे अपने क्षेत्रों में बाहरी लोगों के प्रवेश पर अनेक तरह के निषेध लागू किए हुए हैं। यह जानते हुए कि विश्व के चौंतीस प्रतिशत भूगोल पर उन्होंने बलात अधिकार किया था, क्या आने वाली पीढ़ियां इसे पचा पाएंगी?
यूरोपीय जाति का यह भौगोलिक विस्तार केवल एक ऐतिहासिक विसंगति नहीं है। इस विस्तार ने उसकी अग्रणी सामरिक शक्ति यानी संयुक्त राज्य अमेरिका को विश्व भर में अपना सामरिक प्रतिष्ठान खड़ा करने की सुविधा उपलब्ध कर दी है। आज अमेरिका एक सौ पचास देशों में अपने सैनिक अड््डे बनाए हुए है। अमेरिका से बाहर उसके १ लाख ६० हजार सैनिक तैनात हैं, जिनमें केवल ६६ हजार यूरोप की सुरक्षा के लिए हैं। अस्सी हजार केवल पूर्व एशिया में हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अब तक जितने भी युद्ध हुए हैं, उनमें अमेरिका की अग्रणी भूमिका रही है।
अक्सर यह कहा जाता है कि विश्व में शांति बनाए रखने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय पुलिस वाले की आवश्यकता होती है। लेकिन अब तक के राजनीतिक इतिहास में हम अमेरिका और उसकी सहयोगी यूरोपीय शक्तियों को सबसे निरंकुश शासकों का संरक्षण करते हुए ही पाते हैं। हमारे बगल में पाकिस्तान को शह देने में भी अमेरिकी भूमिका ही रही है। संसार के सबसे बड़े माफियाओं और नशीली वस्तुओं के तस्करों के सूत्र आप यूरोप-अमेरिकी हाथों में ही पाएंगे। यह विडंबना ही है कि जिस शक्ति का उदय सबसे अमानुषिक साधनों से हुआ हो, वह संसार भर को आज मानवता का पाठ पढ़ाती घूम रही है।
यूरोपीय जाति का आज जो वर्चस्व है वह केवल विश्व-व्यापार में उसके सर्वाधिक भाग के कारण नहीं है। विश्व-व्यापार में उसकी अग्रणी भूमिका इसलिए है कि वह आज विश्व की सबसे संख्या-बहुल और संपन्न जाति है। यह संख्या बहुलता और संपन्नता उसे अपने भौगोलिक विस्तार के बल पर मिली है। इसलिए जब तक विश्व की एक तिहाई भूमि पर उसका यह अनुचित और अनधिकृत नियंत्रण बना रहता है और उसे चुनौती नहीं दी जाती तब तक विश्व की विषमता दूर नहीं होगी।.