भारत में सदियों से सभी जीवों का सम्मान रहा है। इतना ही नहीं वनस्पतियों का भी सम्मान रहा है। वनस्पतियों की पूजा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। हम भारत के लोग पीपल, बरगद, नीम, गुलर आदि पेड़ों को अपना संबंधी मानकर पूजते आये हैं। उसी प्रकार प्राणियों की भी पूजा करते हैं। जिनमें गाय, हाथी, बाघ, शेर, सिंह, बंदर, भालू, घोड़ा, सुअर आदि है। इनमें से कई वनजीव हैं तो कई घरेलू पशु। कई वन और घरेलू दोनों वातावरण में रहने वाले हैं।
उदाहरण के लिए भगवान विष्णु का सहस्त्र रूप देखा जा सकता है। सभी जीव हैं उनमें और सभी कहीं न कहीं प्रकृति के संतुलन में भूमिका रखने वाले ही हैं। आज उसी भारत में वन जीवों को गोली मारने का आदेश हमारी सरकारें देती रही हैं। आश्चर्य अब होता है जब वर्तमान की सरकार के मंत्री भी इसकी वकालत करते हैं। बिहार में नीलगाय और सुअर को गोली मारने का आदेश, हिमाचल में बंदरों को गोली मारने का आदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में नीलगाय को गोली मारने का आदेश ; यह प्राणी प्रेमियों के लिए दिल दहला देने वाला है। इस दिशा में सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश की सरकार ने नीलगाय को गोली मारने के आदेश किसानों को दिया था। यहां तक कि किसानों को रायफल का लाइसेंस भी इसी कारण दिया गया था। तर्क है कि ये जीव किसानों की फसल को बरबाद करते हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या कारण है कि आज शाकाहारी वनजीव समस्या बन खड़े हैं, उन्हें गोली मारने का आदेश देना पड़ा ? वनजीवों का घर वन है। जब उनके घर को मनुष्य उजाड़ेगा तो वे कहां जाएंगे ? उजड़ते वनों के कारण ही ये वनजीव गांवों में आकर किसानों के फसल को चर रहे हैं। उन्हें वन से बाहर निकलने में डर है फिर भी पेट की अग्नि के कारण वे ऐसा कर रहे हैं। इसमें भारत का वन विभाग पूरी तरह से दोषी है। उसने जंगलों को बचाने के स्थान पर जंगलों को लूटा है। जब तक जंगल गांव के पास था, तब तक जंगलों का संवर्धन था। अंगरेजों को जंगल लूटने थे इस कारण अंगरेजों ने जंगलों का अधिग्रहण किया था। जंगलों में अपनी सुरक्षा के वन अधिकारी और जंगल के सिपाही खड़े किए था। दु:ख इसी का है कि ६८ वर्षों के बाद भी जंगल के कानून नहीं बदले। आज भी जंगलों को ग्राम को नहीं सैंपा गया। इस कारण जंगलों का दोहन चल रहा है। वनस्पति उजड़ रहे हैं, हरियाली समाप्त हो रही है। वन के शाकाहारी जीव कृषि भूमि की ओर भाग रहे हैं। मांसाहारी उनके पीछे पीछे गांव की ओर आ रहे हैं। परिणाम शाकाहारी और मांसाहारी दोनों जीवन बे मौत मर रहे हैं।
सवाल खड़ा होता है कि नीलगाय क्या है ? तो नीलगाय भी गाय है। यह विशेष रूप से गाय और अश्व का मिला रूप है। सूर्य की किरणों में ९ प्रकार की ऊर्जाएं हैं। ७ ऊर्जाएं सप्त रंगों के रूप में हमे प्रकाश की किरणों से प्राप्त होता है। दो ऐसी किरणें हैं जिसे विशेष जीव ही प्रभावित होते हैं और वे उन ऊर्जाओं को सोखने की शक्ति रखते हैं। १) प्रज्ञा ऊर्जा और २) क्रिया ऊर्जा। प्रज्ञा ऊर्जा को सोखने की शक्ति गाय के पास है और क्रिया ऊर्जा को सोखने की शक्ति अश्व के पास है। यही कारण है कि गाय के पास चेतना बहुत है और अश्व के पास वेग बहुत है। चेतना को यदि वेग मिल जाए तो क्या कहने ? यही कारण है कि पूर्व के भारत में प्रत्येक राजाओं के पास एक गौशाला और एक अश्वशाला होता था। नीलगाय इन दोनों का सम्मिलित रूप है। इसमें सूर्य की चेतना ऊर्जा (प्रज्ञा) और क्रिया ऊर्जा दोनों को सोखने की शक्ति है। इस लिए नील गाय को गाय कहें तब भी कोई गलत नहीं और अश्व कहें तब भी कोई गलती नहीं। गाय और अश्व दोनों ही भारतीय संस्कार के अभिन्न अंग रहे हैं.
इसकी प्रमाणिकता के लिए रसायनिक विश्लेषण की ओर जाना पड़ेगा और यदि शास्त्रीय प्रमाण की जरुरत है तो ऋग्वेद स्पष्ट रूप कहते हैं कि नीलगाय भी गाय ही है। मैंने नीलगाय के गोबर और मूत्र का रसायनिक विश्लेषण किया है। यह तो गाय के गोबर और गौमूत्र के समरूप ही है। बल्कि नीलगाय के गोबर में गाय के गोबर की तुलना में हायड्रोजन दो गुणा से भी अधिक है। दूसरे और कई तत्व भी गाय के गोबर की तुलना में अधिक हैं। हाँ ! नीलगाय के गोबर और गौमूत्र में गाय के गोबर और गौमूत्र की तुलना में चेतना ऊर्जा कम हो सकती है। इसमें आंकड़े नहीं गिनाए जा सकते क्योंकि आज के भौतिक विज्ञान के पास चेतना को नापने का कोई यंत्र नहीं है।
नीलगाय को बचाने के लिए जंगलों को हरा – भरा बनाइयें। जंगलों में जल की व्यवस्थता करें। इसके लिए जंगलों में गाय को चरने के लिए छोड़ना पड़ेगा। गाय जब जंगलों में चरेगी तो उसका गोबर – गौमूत्र वहां गिरेगा। जिससे वनस्पतियां उगेगी। जंगल हरे भरे होंगे, वर्षा गिरेगी। तभी वनजीव जंगल से बाहर नहीं निकलेंगे।
इसके भी सरल उपाय भी हैं। ‘सिंह’ बड़ा ही समझदार और घरेलू वातावरण में रहने वाला वनजीव है। इसे गांव से बाहर कृषि भूमि में पाला जा सकता है। सिंह का भोजन महिने में दो या तीन बकरियां हो सकती है। जिसे बकरी पालन कर पूर्ति किया जा सकता है। सिंह को बकरी खाने को मिल जाए जो वह मनुष्य और गाय पर आक्रमण नहीं करेगा। हमारे पूवर्जों ने भी सिंह पालन तो किया ही है। हम क्यों नहीं अतीत से सीख लेते ?
यह भी न हो तो आज चिड़ियाघरों में सिंह और बाघ है। यदि उसके लीद (मल) को पानी में घोलकर कृषि कार्य किए जाने वाले भूमि में जहां कहीं छिड़क दिया जाए या फिर रख दिया जाए तो उसके दुर्गंध से नील गाय नहीं आती। फसलों की सहज रक्षा हो सकती है।
इस संदर्भ में सरकार समझे कि (१) भारत सदियों से ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ के सिद्धांत पर खड़ा रहा है। ऐसे में भारत की सरकारों के लिए यह ठीक नहीं कि वह वनप्राणियों को गोली मारने का आदेश दे। भारत तो सदा से जीवों और वनस्पतियों को पूजता आया है। भारत इसी में प्रकृति के संतुलन को समझता आया है। ऐसे में किसी भी जीव की हत्या का आदेश भारत में हो रहे सांस्कृतिक पतन को ही दर्शाता है। (२) नीलगाय के गोबर और गौमूत्र में अद्भुत ताकत है। इससे जंगल संतुलित रहता है। जंगल के मांसाहारी जीवों को भोजन मिलता है और मांसाहारी जीवों से जंगल सुरक्षित रहता है।
अत: सरकार नीलगाय की हत्या नहीं बल्कि रक्षा का आदेश करें। नीलगाय समाप्त हो गई जो जंगल पूरी तरह से उजड़ जाएंगे। यदि जंगल उजड़ गए जो भारत अरब देशों की तरह रेगिस्तान में बदल जाएगा।