निरोगी भारत यात्रा के दौरान पिछले सप्ताह गड़चिरौली का प्रवास रहा। यह महाराष्ट्र का वह हिस्सा है जहां से छत्तिसगढ़ और आन्ध्रप्रदेश का प्रारंभ होता है। अत: इस क्षेत्र की संस्कृति वनवासियों से मिलती – जुलती है। तेलुगु परंपरा का प्रारंभ भी यहीं से है। कभी यह क्षेत्र घना जंगल था जो अब समतल उपजाऊ क्षेत्र में तब्दिल हो गया है। यहां आते – आते वाणगंगा का प्रवाह रूक सा गया है। बांधों ने उन्हें मृतप्राय कर दिया है। अभी भी यह क्षेत्र नक्सली के प्रभाव में है। उनका मुख्य धारा से जुड़ना नहीं हो पा रहा है। उनकी समस्या अपने अधिकार के मांग को लेकर है जबकि सरकार की समस्या उनको नियंत्रण में रखने की है।
नक्सलियों की समस्या सरकार की उल्टी नीति के कारण भी है। सरकार कहती है कि नक्सली हथियार रख दें, परन्तु प्रश्न खड़ा है कि उन्हें हथियार धारण किए कई लाख वर्ष हो गए। वह उनकी स्वसुरक्षा है, जिसे वे सदियों से धारण करते आए हैं। इतिहास गवाह है कि जब श्रीरामचन्द्रजी अयोध्या से सप्तगिरी पर्वत के लिए प्रस्थान किए तब यह क्षेत्र रास्ते में आया था और जब उन्होंने देखा कि यहां की जनता गुण्डों से परेशान है, असूर उन्हें परेशान कर रहे हैं तब उन्होंने वहां पर कुछ दिवस विश्राम के नाम पर रुके और जनता को स्वसुरक्षा के लिए तीर – कमान नामक अस़्त्र धारण करने को कहा। आज लाखों पीढ़ियों के गुजर जाने के बावजूद उन्होंने अपने अस्त्र नहीं त्यागा है। इतिहास को जीवंत रखा है। ऐसे में सरकार कहती है कि वे अपने अस्त्र त्याग दें, तो भला यह कैसे संभव है।
जंगलों में सरकार उन्हें कौन सी सुविधा प्रदान कर रखी है ? सुरक्षा अधिकारी के नाम पर जो लोग सत्ताबल वाले हैं वे ही जंगलों को यानि उनके घरों को नुकसान पहुंंचाए हैं। सरकार ने ही जंगलों को बेच डाला है। जबकि जंगल उनके थे, उनके घर थे। सरकार वैâसे बेच सकती है ? जंगल की संपदा पर उनके सिवा किसका अधिकार हो सकता था ? लेकिन वे तो दो कौड़ी के रह गए और सरकार मालोमाल हो गई। श्रीरामचन्द्रजी ने ही उन्हें अपना और अपने घर की सुरक्षा के लिए अस्त्र दिए थे और उनके उपयोग को भी सिखलाया था। उन्हें लगता है कि सरकार उनके हित में नहीं है सो वे अपनी स्वसुरक्षा के लिए अस़्त्र धारण किए रहते हैं। वे परम ज्ञानी हैं, उनके पास मोह तो है परन्तु माया नहीं है। इसलिए वे जंगल की संपत्ति को जंगल में ही रहने में प्रकृति का संतुलन समझते हैं। लेकिन सरकार की नियत इससे उल्टे है। सरकार की नितियों ने जंगल को उजाड़ा है। वे वहां हैं इसलिए जंगल बचा है। अभी भी जो जंगल दिखलाई देते हैं यह उनकी ही कृपा है।
यहां पर एक खाई हो गई है, सरकार और वनवासियों के बीच। इस खाई को कुछ ऐसे लोलुप लोगों ने बनाया है जिन्हें वनवासियों के सीधेपन के दुरुपयोग से अशांति पैâलाना है। ऐसे लोगों ने ही बंदूवेंâ और रायफल को आधार बनाया है। यह स्वसुरक्षा के लिए नहीं है, दूसरों को मारने के लिए है। जिनके पास स्वसुरक्षा के लिए अस़्त्र है वे दिन भर खेतों में काम करते हैं, रात्रि में चैन की नींद सोते हैं और जब कभी माँ (भूमि) की सुरक्षा की जरुरत पड़ती है तब जंगल रक्षा सेना के अंग बन जाते हैं। दुर्भाग्य से उन्हें नक्सलवादी कहा जाता है। वे दूधारियों और सरकार के कोल्हू के बीच पीसे जाते हैं। पता नहीं कब, कौन आएगा इस क्षेत्र में और उनकी मूल समस्याओं से सरकार के बीच समझौता कर विकास के मार्ग से उन्हें जोड़ेगा। उन्हें भी आशा है, कोई तो, कभी तो आएगा। आशा भरी सुबह होगी। श्रीरामचन्द्रजी की सेना भारत सरकार की सेना होगी।
इस क्षेत्र के लोगों में स्वास्थ्य के प्रति बड़ी जागरुकता है, लेकिन बिमारियों के प्रकार और उसकी पहचान बदलने से उन्हें संशय है। फिर भी वे अपने बल – बूते बहुत कुछ कर पाते हैं। ड्रग्स माफिया की कुछ एजेंसियां सक्रिय हैं। बहुत सारी एण्टिबायोटिक के क्लिनिकल ट्रायल चलते हैं, उनके खतरनाक प्रयोग होते रहते हैं। इस क्षेत्र में सिकल-सेल के हजारों बच्चे हैं, सरकार कहती है कि संयोग है, लेकिन मैंने देखा और अनुभव किया है कि इसमें कुछ खास प्रयोग है। इसके नाम पर कई करोड़ के पैकेज आते रहते हैं और रद्दी की टोकरी में पेâकने से भी बदत्तर प्रयोग किए जाते हैं। जिससे आज तक किसी भी बच्चे को हानि छोड़कर लाभ नहीं मिला है।
फिर प्रश्न खड़ा है कि जिनके पास जंगल हैं, औषधियों की खान है, उसकी पहचान है और उनके बच्चों में खून नहीं बनने की बिमारी है, आखिर कैसे संभव है ? एक दो नहीं, हजारों की संख्या में। संसार में सबसे ज्यादा ऐसे बच्चे इसी क्षेत्र के हैं और ज्यादातर ऐसे वनवासियों के बच्चे ही हैं। उनके पास पैसा भी ज्यादा नहीं है। सरकार को इसमें षड़यंत्र की बू नहीं आती है, लेकिन स्थितियां गवाह देती हैं कि यह मानव जनित हो सकता है ? क्लिनिकल ट्रायल का हिस्सा हो ?
जो भी रहा हो, यह क्षेत्र भी बहुतायत बिमार है। लोग एलोपैथी से तंग आ चुके हैं लेकिन विकल्प नहीं है। आयुर्वेद मृत की तरह खड़ा है और आयुर्वेदिक डॉक्टरों को एलोपैथी की चिकित्सा में ही धन और सम्मान दिखलाई देता है। ऐसे में कोई कहां जाए ? यही कारण है कि बायोटिक शरीर में डाले जाने वाला अण्टिबायोटिक का बाजार फल – फूल रहा है और लोगों को चिकित्सा के नाम पर रोग ही मिल रहे हैं। सरकार कोई प्रयास नहीं करती, समकक्ष कोई खड़ा हो हिम्मत भी नहीं बंधाती। ऐसे में गऊमाँ ही विकल्प है, जिसकी शरण में लोग जाने लगे हैं। भैंसों के दूध के दुष्परिणाम को लोग पहचानने लगे हैं। जितने भी बच्चे सिकल – सेल से ग्रसित हैं उनका जीवन कहीं न कहीं भैंस से जुड़ा है। हमारे शास्त्रों में भैंस को यमराज (मृत्यु) का प्रतिक माना है। सरकार इसे नहीं मानी, गऊमाँ की रक्षा नहीं की, परिणाम सामने है। – धेनू वन्दे मातरम् ।