आज संसार में दो शब्द “जी.एम.” और “हाईब्रीड” उस प्रेत की भांति मनुष्य की आयु को खा रहा है जिस प्रेत की त्रास से बचने के लिए कोई झाड-फूंक नहीं है. “जी.एम.” जो जेनेटिक मोडिफायड है. और “हाईब्रीड” जिसे हाई इल्ड कहा जा रहा है. जेनेटिक मोडिफायड का मतलब है उसके बीज के “जीन” में परिवर्तन किया हुआ. “जीन” उस बीज का सबसे सुक्ष्म हिस्सा है जिसके समूह से उस बीज के “सेल्स” बने हैं. एक बीज में करोड़ो “सेल्स” होते हैं. और “सेल्स” अपने-आप में सम्पूर्ण होता है. हर “सेल्स” के पास तीन उर्जायें होती है. 1) शिवउर्जा, 2) विष्णुउर्जा एवं 3) ब्रह्मउर्जा. शिवउर्जा उसके बाहरी परत वाले इलेक्ट्रॉन्स हैं. जबकि विष्णुउर्जा उसके भीतरी शरीर के इलेक्ट्रॉन्स हैं. ब्रह्मउर्जा के कई कार्य हैं. इनमें एक – दोनों के बीच समन्वय स्थापित कर रखना. जब तक समन्वय है तभी तक उस बीज का भोतिक शरीर अपने रूप में रहता है. ब्रह्म उर्जा का दूसरा कार्य है – उस बीज में चेतना – संवेदना जैसी अदृश्य उर्जाओं को बचा कर रखना. “जीएम” बीजों में इसी ब्रह्म उर्जा को शून्य की ओर ले जाया जाता है. शून्य नहीं कर सकते लेकिन शून्य के पास लाया जाता है. और साथ में जहरीले जीवों के “जीन” को जोड़ दिया जाता है. यानि “जीन” में ही जहर प्रवेश करा दिया जाता है. इस प्रकार जेनेटिकलि बिगाड़ किये गए बीजों को जेनेटिक मोडिफायड बीज कहा जा रहा है. अर्थात जो कार्य ईश्वर का है उसे मनुष्य अपने हाथ में लेना चाह रहा है. “हाईब्रीड” इसी का पूर्ववत शोध है. जिसे हाई-इल्ड कहा जा रहा है वह वास्तव में चेतना – संवेदना विहीन अनाज है. जिसका उपभोग करने से मनुष्य स्वयं चेतना – संवेदना विहीन हो रहा है. विश्व माफिया यही चाहता है. क्योंकि चेतना – संवेदना विहीन मनुष्य आसानी से उपभोक्ता भी बनता है और मानसिक रूप से गुलाम भी.
भारत इस कुचक्र में बुरी तरह से फंस चूका है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बुद्धि को फंसा लिया गया है. एक बानगी – हमारी सरकार “जीएम” सरसों को स्थापित करने रात – दिन एक कर रही है. जीएम सरसों को नियामक अनुमति का मतलब जीएम खाद्यान्नों के भरोसे देश छोड़ देना होगा। सच तो यह है कि भारत जोखिमभरी, अवांछित और नुकसानदायक तकनीक का विश्व में सबसे बड़ा डस्टबिन बनने के कगार पर खड़ा है। जहां यूरोपीय समुदाय जीएम खाद्यान्नों के खिलाफ पूरी तरह से डटा है, वहीं रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के तीखे विरोध के बाद अब फ्रांस के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इमैनुएल एदुआदरे मैक्रो भी खुलकर जीएम खाद्यान्नों के खिलाफ उतर आए हैं।
ऐसे में सभी की निगाहें भारत पर थीं। चीन तक अपने यहां इस जोखिमभरी तकनीक को लेकर चौकन्ना है। ऐसे में जीएम उद्योग की दाल भारत में गल रही है. तकनीकी नवोन्मेषण के नाम पर जीएम सरसों की कचरा प्रजाति -डीएचएम-11- को व्यावसायिक पैदावार के लिए अनुमति दी जाती है, तो इससे पता चलता है कि अपने यहां वैज्ञानिक नियमन की समूची प्रक्रिया का कितना अवैज्ञानिकता है. विज्ञान के नाम पर यह धोखा है। जीईएसी ने कृषि संकट से पार पाने के मद्देनजर नीति आयोग की जीएम तकनीक संबंधी सिफारिशों के सुर में सुर मिलाते हुए ही यह सब किया है, तो लगता है कि कृषि संकट को लेकर हमारे नीति-निर्माताओं की समझ में कहीं न कहीं कुछ गंभीर किस्म की गड़बड़ है।
इसमे मीडिया ने राष्ट्र के साथ पूरी तरह से मक्कारी किया है. जीएम फसलों को लेकर किए गए बेतुके दावों के समर्थन में लिखा है. कहा जाता है कि एक झूठ को बार-बार कहें तो वह सच बन जाता है। यह बात इस दावे के बारे में कही जा सकती है कि जीएम सरसों की उपज 30 प्रतिशत ज्यादा उतरेगी और इसे करके भारत को खाद्य तेलों के आयात पर 76,000 करोड़ रुपये के खर्च को खासा कम करने में मदद मिलेगी। सच यह है की नीति आयोग ही ऐसी हवा बनाता रहा है। जो सच नहीं है.
आकडे बताते हैं की 2016-17 में भारत में सरसों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था। उत्पादन के कारन कीमतें धड़ाम से गिरीं। सरसों उत्पादक क्षेत्रों से खबरें मिली थीं कि किसानों को औने-पौने दामों पर अपनी पैदावार बेचने पड़ी थी। दामों में प्रति क्विंटल 400-600 रुपये की औसत गिरावट आई। भारत में सरसों करीब 158 लाख एकड़ में बोई जाती है, और इस फसल को उत्पादकता संबंधी समस्या का सामना कभी नहीं करना पड़ा। किसानों को जिन सबसे बड़ी समस्या का सामना करना पड़ता है, वह है अपनी पैदावार का लाभकारी मूल्य नहीं मिल पाना। उन्हें तो उतने दाम भी नहीं मिल पाते जितने न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप सरकार घोषित करती है। कहीं कोई प्रयास नहीं दिखता जिससे कि किसानों को निश्चिंत करने वाले दाम मिल सकें।
इस दिशा में भारत का नीति आयोग खलनायक है. वह ऐसा प्रपंच खड़ा करता है जिससे किसानों को सही दम मिलाने वाली बात से हटा दिया जाता है. मुख्य समस्या से ध्यान हटा कर कम उत्पादकता को मुख्य समस्या के तौर पर उभारा जाता है. जबकि 1985 में चालू खाते के घाटे को कम करने की गरज से खाद्य तेलों के आयात में कमी लाने का फैसला किया गया था। उस समय भारत विश्व में खाद्य तेलों का तीसरा सबसे बड़ा आयातक था। उसके बाद 1993-94 तक भारत खाद्य तेलों के मामले में करीब-करीब आत्मनिर्भर बन गया था। घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत उत्पादन होने लगा था। मात्र तीन प्रतिशत खाद्य तेलों का ही आयात करना पड़ता था।
सस्ते खाद्य तेलों के लिए पॉम तेल की प्रचुरता ने घरेलू बाजारों में हड़कंप मचा रखा है. आज स्थिति यह है कि अपनी घरेलू जरूरत का जहां भारत पहले मात्र तीन प्रतिशत खाद्य तेलों का आयात कर रहा था, आज वहीं 60 प्रतिशत से ज्यादा खाद्य तेलों का आयात करता है। अगर खाद्य तेलों की स्थिति वास्तव में सुधारनी है तो तिलहन उत्पादकों के लिए उत्साहवर्धक माहौल बनाना होगा।