देश की शिक्षा में सुधार कैसे हो इस विषय पर पिछले ६८ वर्षों से सोचा जा रहा है। कभी उसे नास्तिक रंग में रंगा जाता है तो कभी उस पर हिन्दूवादी होने का आरोप लगता है। लेकिन सुधार के आधार नहीं दिखलाई दे रहे हैं। प्रश्न यही है कि इस पर कभी भी भारत के भूगोल और उसकी प्रकृति के रंग में रंग कर नहीं सोचा गया। न ही कार्य किए गए। ऐसे में भला वैâसे सरकारी नियंत्रण वाले प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में शिक्षा का स्तर सुधर पाए ? जबतक इन प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा के सुधार के लिए जब तक कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जाता, तब तक स्थिति ऐसी ही रहने वाली है। ऐसा भी नहीं है कि प्राइवेट स्वूâलों में स्थिति बहुत अच्छी है। इतना ही फर्वâ है कि वहां दिखावे के लिए बहुत कुछ है और सरकारी स्कूलों में सादगी है।
यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों की दुर्दशा सुधारने के लिए अब अदालत को आगे आना पड़ा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चार दिन पहले अपने एक अहम फैसले में कहा है कि मंत्री और सरकारी अफसर और सरकारी खजाने से वेतन या मानदेय पाने वाले हर व्यक्ति के बच्चे का सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ना अनिवार्य करें। स्वागत है माननीय न्यायालय के पैâसले का। यदि ऐसा धरातल पर उतर आया तो भारतीय शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प हो जाएगा। साथ ही जो शख्स ऐसा न करे, उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाए। इस काम में जरा भी देरी न हो। राज्य सरकार इस काम को छह महीने के भीतर पूरा करे। सरकार कोशिश करे कि यह व्यवस्था अगले शिक्षा सत्र से ही लागू हो जाए। इस कार्य को पूरा करने के बाद सरकार, अदालत को कार्रवाई की संपूर्ण रिपोर्ट पेश करे। सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के लिए इस तरह के सख्त कदम जरूरी हैं।
माननीय न्यायालय ने माना है कि अगर अब भी ऐसे कदम नहीं उठाए गए तो प्राथमिक शिक्षा का पूरा ढांचा चरमरा जाएगा और इसकी जिम्मेदार सिर्फ सरकार होगी।
अपने फैसले में अदालत का साफ-साफ कहना था कि जब तक जनप्रतिनिधियों, अफसरों और जजों के बच्चे प्राइमरी स्कूलों में अनिवार्य रूप से नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी। अदालत यहीं नहीं रुक गई, बल्कि उसने एक सख्त कदम और आगे बढ़ाते हुए कहा कि जिन नौकरशाहों और नेताओं के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ें, वहां की फीस के बराबर रकम उनके वेतन से काटें। साथ ही ऐसे लोगों की वेतन-वृद्धि और पदोन्नति भी कुछ समय के लिए रोकने की व्यवस्था की जाए। यानी अदालत का साफ-साफ कहना था कि जब तक इन लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, वहां के हालात नहीं सुधरेंगे।
यह क्रांतिकारी आदेश न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने उत्तर प्रदेश के जूनियर हाईस्कूलों में गणित और विज्ञान के सहायक अध्यापकों की चयन प्रक्रिया पर दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान दिया। प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा-मित्रों को सहायक अध्यापक बनाने की सरकार की नीति पर कड़ी टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा कि सरकार की नजर शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के बजाय वोट बैंक बढ़ाने पर है। उत्तर प्रदेश के लोगों ने न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निर्णय को बड़ी गंभीरता के साथ लिया है और एक साहसिक कदम बताया है।
न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने कहा है कि अयोग्य लोगों को भी नियम बदल कर शिक्षक बनाया जा रहा है। इस पर लगाम लगे।
कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो देश के ज्यादातर प्राथमिक स्कूलों के बुरे हाल हैं। इन स्कूलों की मुख्य समस्या विद्यार्थियों के अनुपात में शिक्षक का न होना है। अगर शिक्षक हैं भी, तो वे आलसी और अनपढ़ – गवांर जैसे हैं। शिक्षकों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ज्यादातर स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं भी न के बराबर हैं। कहीं स्कूल का भवन नहीं है। भवन है तो अन्य कई सुविधाएं नहीं हैं। ये सब हैं, तो शिक्षक नहीं हैं।
यह हालत तब है, जब पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है। प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए कहने को इस कानून में कई अच्छे प्रावधान हैं, लेकिन ज्यादातर राज्यों ने अपने यहां इस कानून को सही तरह से अमल में नहीं लाया है।
बड़े अफसर और सरकारी कर्मचारी जिनकी आर्थिक स्थिति बेहतर है, अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं। अधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने की अनिवार्यता न होने से ही सरकारी स्कूलों की दुर्दशा हुई है। जब इन अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते, तो उनका इन स्कूलों से कोई सीधा लगाव भी नहीं होता। वे इन स्कूलों की तरफ ध्यान नहीं देते। सरकारी कागजों पर तो इन स्कूलों में सारी सुविधाएं मौजूद होती हैं, लेकिन यथार्थ में कुछ नहीं होता। जब उनके खुद के बच्चे यहां होंगे, तभी वे इन स्कूलों की मूलभूत आवश्यकताओं और शैक्षिक गुणवत्ता सुधारने की ओर ध्यान देंगे। सरकारी, अर्ध सरकारी सेवकों, स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों, जजों और सरकारी खजाने से वेतन या मानदेय प्राप्त करने वाले लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से जब सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे, तो निश्चित तौर पर पूरी शिक्षा व्यवस्था में भी बदलाव होगा।
भारत के आम नागरिक सरकारी जूनियर और सीनियर बेसिक स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला नहीं कराते, तो इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि यहां अच्छे शिक्षक नहीं हैं और बुनियादी सुविधाओं की कमी है। बल्कि इसकी और भी कई कारण हैं। जिसमें भाषा अंगरेजी होना भी है। अंगरेजी से लोगों का मोह नहीं छूट पा रहा है। दूसरा कारण प्राइवेट स्कूलों में बच्चों को नई-नई जानकारियों से युक्त पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं, लेकिन सरकारी स्कूल पुराने पाठ्यक्रमों पर ही चलते रहते हैं।