कागजी अर्थव्यवस्था के जानकार कह रहे हैं कि भारतीय विकास दर के ७.३ फीसद तक पहुंचने का मतलब है कि भारत की अर्थव्यवस्था गति पकड़ रही है। केंद्रीय सांख्यिकी विभाग ने जो आंकड़े दिए हैं उसमें खास बात यह भी है विकास वृद्धि की रफ्तार के मामले में भारत ने चीन को पछाड़ दिया है।
जानकार आगे बता रहे हैं कि २०१५-१६ में भारतीय अर्थव्यवस्था चीन को पीछे धकेलते हुए सबसे तेज गति से दौड़ने वाली अर्थव्यवस्था बन जाएगी। यह सब कुछ काफी उत्साहजनक है और यह मोदी सरकार के पहले साल की बड़ी उपलब्धि भी मानी जानी चाहिए। लेकिन भारत के बाजार के खुदरे और थोक व्यवसायी अभी भी निराश हैं कि उनकी गलियों में चहलकदमी कब बढ़ेगी ?
चीन आज खुदरा बाजार में भले ही अपना वर्चस्व बनाए है लेकिन स्थितियां ऐसी ही कछुए गति से चलती रही तो भी उसे चारो खाने चित्त होना पड़ेगा। क्योंकि आम आदमी में स्वदेशी और वस्तु गुणवत्तता के प्रति जो सजगता आ रही है वह कहीं न कहीं चीन को पटखनी देगा। प्लास्टिक के चावल और प्लास्टिक से बनी हुई सब्जी जब चीन के बाजार से भारत में आने लगा है ऐसे में चीन की शाख बहुत ही जल्दी गिरेगी। इसी अवसर को भारत भुना सकता है और अपनी गुणवत्तता को लेकर विश्व बाजार में छा सकता है।
इसमें दो राय नहीं कि मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने, विशेषकर कारोबारी माहौल सुधारने के कई कदम उठाए हैं। कोयला खदानों की बेतुकी आबंटन व्यवस्था की जगह नीलामी की प्रक्रिया शुरू हुई। स्पेक्ट्रम के आबंटन में भी पारदर्शिता लाई गई। अब लाल फीताशाही भी काफी हद तक घटी है। इस सबका असर अवश्य ही पड़ा होगा। फिर, सेवा और विनिर्माण क्षेत्र भी अच्छा प्रदर्शन दिखा रहे हैं। सेवा क्षेत्र को लेकर कुछ जानकार अंदेशा जाहिर कर रहे थे कि भारत में यह संतुष्टि स्तर के करीब है और भविष्य में इससे अधिक उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, लेकिन दस फीसद से ऊपर वृद्धि हासिल करते हुए इस क्षेत्र ने साबित किया है कि उसमें अभी भी व्यापक संभावना है।
इसी तरह, कारखाना क्षेत्र ने आठ फीसद से अधिक बढ़ोतरी के साथ भविष्य के लिए सुनहरी उम्मीद जताई है। हालांकि, खनन और इससे भी बढ़कर कृषि क्षेत्र का कमजोर प्रदर्शन सरकार के लिए चिंता का विषय होने के साथ-साथ सवालों के घेरे में भी है। इस पर प्रश्न यही उठ रहा है कि पिछले वित्त वर्ष में कृषि उत्पादन में गिरावट दर्ज हुई, कहीं इस साल भी ऐसी स्थिति न बन जाए ?
अर्थव्यवस्था को यदि सरकार के नीतिगत फैसलों का समर्थन मिला, तो इस साल इसका प्रदर्शन और बेहतर रूप में उभर कर सामने आ सकता है। लेकिन, यहां जीडीपी के जारी सरकारी आंकड़ों को लेकर खासकर दो सवाल उठते हैं। पहला – कृषि का क्षेत्र इतना कमजोर कैसे रह गया, जबकि देश की आधी से भी अधिक आबादी की आजीविका का यह मुख्य आधार है? सरकार ने इस क्षेत्र को उत्साहित करने के लिए समय रहते आवश्यक नीतिगत कदम क्यों नहीं उठाए? जीडीपी का कुल आंकड़ा ही कोई मायने नहीं रखता। इसमें अहम मुद्दा यह भी है कि उन क्षेत्रों की हालत कैसी है, जिनका आम लोगों की आय और रोजी-रोटी से ज्यादा वास्ता है?
दूसरा – जीडीपी के आकलन का तरीका सरकार ने नहीं बदला होता, तो क्या तब भी सात फीसद से अधिक की वृद्धि हर हासिल हुई होती? उल्लेखनीय है कि फरवरी माह में मोदी सरकार ने जीडीपी आकलन के लिए आधार वर्ष बदल दिया था। २०११-१२ को आधार वर्ष बनाया गया। जबकि, पहले के हिसाब से यह २००४-०५ होना चाहिए था। यह सरकार की सोची-समझी और राजनीतिक गणित है, और इसी वजह से विकास दर उत्साहजनक दिखाई दे रही है। आधार वर्ष बदले जाने के बाद हासिल आंकड़ों को लेकर कई अर्थ विशेषज्ञ इसे संदेह की नजर से भी देख रहे हैं। बहरहाल, जीडीपी की दर बढ़ना कोई मायने नहीं रखता, जब तक कि, आम लोगों को कोई राहत नहीं मिलती। बाजार में मांग घटती दिख रही है और जीडीपी की दर सात से ऊपर है, तो यह एक बड़ा विरोधाभास भी है।
आंकड़ों में सरकार ने जो विकास दिखलाया है यह अंतर्राष्ट्रीय पटल के लिए भले ही सार्थक है, निवेशकों के रुझान बढ़ेंगे भी लेकिन भारत के आम आदमी को इससे क्या मिलने वाला है। बाजार की गलियों में छोटे व्यापारी अभी भी रो रहे हैं। इसके लिए सरकार क्या करने वाली है ? ऐसे सैंकड़ो सवाल खड़े हो रहे हैं जिसका उत्तर सरकार नहीं दे पा रही है।.