आज गुजरात-राजस्थान सीमा, उडीसा, पश्चिम बंगाल एक ओर बाढ़ की मार झेल रहा है तो दूसरी ओर शेष भारत में न्यूनतम से भी कम वर्षा है। महाराष्ट्र का कोंकण, गोवा आदि क्षेत्रों में भी छिट-फूट वर्षा विगत सप्ताह से शुरु हुई है जबकि इन क्षेत्रों में मौनसून १५ जून के बाद ही आ जाती है और कई दिनों तक लगातार वर्षा होने का इतिहास रहा है। ऐसी ही हालत कांचीपुरम जिला सहित तमिलनाडु के कई जिलों में भी है।
प्रश्न उठता है कि मौसम का चक्र इतना वैâसे गड़बड़ हुआ ? इससे सबसे बड़ी समस्या यह उठ खड़ी हुई है कि जितनी वर्षा धीरे – धीरे कई महिनों में होनी चाहिए थी उतनी वर्षा कुछ ही घंटों में गिर जा रही है। जैसे अचानक किसी ने आकाश की छत की टूंटी खोल दी हो। इससे कृषि क्षेत्र को भारी नुकसान का सामना करना पड़ रहा है। खेत में खड़ी फसलें चौपट हो जा रही हैं। खेतों में बोया गया बीज उगने के पहले ही सड़ जा रहा है। इस प्रकार की कई समस्याएं भारत के किसान झेल रहे हैं।
सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि इन गंभीर समस्याओं के लेकर हमारी सरकारें गंभीर नहीं है। मौसम के इस बिगड़े हुए चक्र को सुधारने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। सरकारी तंत्र हाथ पर हाथ धर कर बैठा है और उनका कार्य केवल मौसम की सूचना भर इकट्ठा कर सरकार और जनता को आगाह करना रह गया है। आज का ज्वलंत प्रश्न यही है कि ऐसे में क्या करे भारत की निर्दोष जनता ? हम कैसे सुधारें बिगड़े मौसम के मिजाज को ?
इसके लिए कुछ ऐसे प्रयास हैं जिन्हें कोई भी भारतवासी कर सकता है। १) अपने जीवन में कम से कम प्लास्टिक की वस्तुओं का उपयोग करें। कम से कम प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग को सदा के लिए बंद कर दें। इसके स्थान पर कपड़ा और कागज की थैलियों का उपयोग किया जा सकता है। प्लास्टिक की थैलियां कचरे के साथ नालियों में बहते हुए अवरुद्व हो जाता है और गंदे जल का बहाव रुक जाता है जिससे कम वर्षा होने पर भी भारी वर्षा होने का आभाष होता है और मन ही मन हम वर्षा को कोसने लगते हैं। हमारे मन में उठी ऐसी भावना भी वर्षा के चक्र को बिगाड़ता है। मन की भावनाओं के साथ प्रकृति की ऋतुओं का बड़ा संबंध है। हम मनुष्य समूह में जो कुछ भी सोचते हैं उस भावना का कद्र प्रकृति करती है और फिर आकाशीय संतुलन बिगड़ने के कारण जो वर्षा कई माह के दौरान धीरे – धीरे होनी चाहिए थी वह कुछ ही घंटों में हो जाती है।
२) जितना हो सके अपने जीवन में जैविक अनाज, फल, फूल और सब्जियों का ही उपयोग करें। इससे बाजार में जैविक खाद्य वस्तुओं की मांग बढ़ेगी और किसानों को मजबूर होकर कृषि कर्म में उपयोग किए जाने वाले रसायनों को बंद करना पड़ेगा। एक बार किसानों ने खेतों में रसायनिक वस्तुओं का उपयोग बंद कर दिया तो उन्हें इस कार्य के लिए गाय की शरण में जाना पड़ेगा। जब किसान रासायन के स्थान पर गाय का गोबर और गौमूत्र डालना शुरु करेगा तब भूमि में फिर से मिट्टी को शुद्ध और पोषक बनाने वाले जीवाणु उत्पन्न होने शुरु होंगे। एक मुट्ठी मिट्टी में ऐसे खरबों जीवाणु अपने जीवन के लिए प्रकृति से समवृष्टि की मांग करते हैं। प्रकृति इनकी भी भावनाओं का कद्र करती है, सुनती है और वर्षा का बिगड़ा हुआ चक्र धीरे – धीरे सुधरने लगता है।
३) यह सुनिश्चित करें कि भारतीय नस्ल की गाय का ही दूध और उससे बनी वस्तुएं अपने जीवन में उपयोग में लाएंगे। इससे देशी गाय की मांग बढ़ेगी और किसान सुअर की नस्ल वाली गाय की तरह दिखने वाली प्रजाति (जरसी, हास्टियन, प्रâीजियन) को छोड़कर भारतीय नस्ल की गाय का पालन शुरु करेगा। भारत की नस्ल की गाय के शरीर में एक सूर्यकेतू नाम की नाड़ी होती है जिसका सीधा संबंध सूर्य के साथ होता है। प्रकृति में केवल भारत की ही गाय है जिसके पास ऐसी नाड़ी होती है। इनके अलावा ८४ लाख जीवों में किसी भी जीव के पास ऐसी नाड़ी नहीं है। इस नाड़ी के माध्यम से भारतीय गाय सूर्य की किरणों में छूपी हुई चेतना को अवशोषित करती है और इसी चेतना से प्रकृति का संतुलन बना रहता है। इस विज्ञान को कठोपनिषद ने बड़े विस्तार के साथ उद्धत किया है।
इसके अलावा जो विश्व स्तर पर मौसम को बिगाडकर एक नया बाजार खड़ा करने का षड़यंत्र किया जा रहा है उससे भी निपटना पड़ेगा, जो कि आसान नहीं है। समय के साथ भारत की प्रकृति उससे भी लड़ने वाली आत्माओं को भारत भूमि पर अवतरित करेगी। जिस प्रकार आज से पांच हजार वर्ष पूर्व योगेश्वर श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में आण्विक युद्धकर की रचना कर प्रकृति पिचासों का संहार किया और करवाया था, प्रकृति इस इतिहास को फिर दूहराएगी। फिर ऐसे गुण्डा राष्ट्र जो प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं उन्हें सबक मिलेगा।.