भारत में किसानों की आत्महत्या तो समझ में आती है क्योंकि कर्ज से लड़ता हुआ किसान विजय माल्या तो नहीं हो सकता। उसे तो कर्ज के प्रति जिम्मेदारी भी है और समाज में कर्ज मुक्त जीवन जीने की लालशा भी। ऐसे में वे किसान ही आत्म हत्या कर रहे हैं जो चमक – दमक वाली कृषि (केमिकल्स आधारित) करने पर ऊतारु हैं। लेकिन अब जो आंकड़े नजर आ रहे हैं वे किसानों के भूख से मरने के हैं।
बचपन के दिनों से हम पढ़ते आ रहे हैं भारत एक कृषि प्रधान देश है मगर २१ वीं सदी के भारत में इस कृषि की हालत बदतर होती जा रही है। अन्नदाता कहा जाने वाला किसान अब उत्पादन की बुलंदियों की वजह से नहीं बल्कि २ लाख किसानों की आत्महत्या की वजह से सुर्खियों में रहता है। आत्महत्या आज भारतीय किसान की पहचान बन चुकी है। कृषि ही समस्त संस्कृतियों की जननी है अर्थात कृषि नहीं तो भारतीय संस्कृति भी नहीं।
हमारे यहां खेती जीवन-पद्धति है और राष्ट्र की खुशहाली किसानों के खेतों एवं खलिहानों से निकलती है। महात्मा गाँधी कहते थे कि ‘जिस खेती-बाड़ी पर तीन चौथाई भारतीयों की आजीविका पर निर्भर है, उसकी उपेक्षा किसी आत्मघात से कम नहीं है।’ हालांकि आकड़े कृषि क्षेत्र में बहुत तरक्की दिखाते है। भारत में कृषकों एवं कृषि विशेषज्ञों के प्रयास से खाद्यान उत्पादन १९५० के मात्र ५ करोड़ टन से बढ़कर वर्ष २०१३-१४ में २५.५ करोड़ टन हो गया है। उत्तर प्रदेश में समान अवधि में उत्पादन १.२ करोड़टन से बढ़कर ५.७ करोड़टन हो गया है।
हम अनाजों के मामले में आत्मनिर्भर हो चुके हैं परन्तु दलहन एवं तिलहन के उत्पादन में अभी भी बहुत पीछे है और इसे प्रत्येक वर्ष आयात करना पड़ता है तथा भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा खर्च होता है। भारत सीमान्त एवं लघु कृषकों तथा कृषि मजदूरों का देश है। इस महान देश की समृद्धि इन्हीं ९१ प्रतिशत कृषकों पर निर्भर है। इन सीमांत कृषकों एवं मजदूरों विशेषकर महिला सीमांत कृषकों की संख्या लगभग ७८ प्रतिशत है, जो भारतीय कृषि का मेरूदण्ड है। ये ही भारतीय तरक्की एवं समृद्धि की आत्मा एवं रक्त हैं, परन्तु दुर्भाग्य से ये सीमांत कृषक सर्वाधिक हाशिये पर और उपेक्षित है।
वास्तव में प्रकृति के गणित से भारत एक अमीर देश है, जो अपने और तथाकथित शिक्षित एवं बड़े कृषकों के स्वार्थ, लालच, दम्भ एवं अज्ञानता के कारण गरीब बना हुआ हैं। इन बड़े लोगों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्रों (जैसे राजनैतिक, धार्मिंक, आर्थिक एवं सामाजिक) में सत्ता का विशेषाधिकार प्राप्त है, और इनके द्वारा भारत के समस्त प्राकृतिक एवं आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित किया गया है। इसी कारण ३० प्रतिशत से ज्यादा अर्थात लगभग ४० करोड़ भारतीयों को सिर्फ एक वक्त का भोजन मिल पाता है। भारत में लगभग २ करोड़से ज्यादा बच्चे प्रत्येक रात भूखे सोते हैं।
भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में लगभग ६५,००० करोड़ रूपये से ज्यादा का अनाज या तो सड़ जाता है या चूहों एवं दीमकों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। एक अनुमान के अनुसार लगभग ३५,००० करोड़ रूपये से अधिक के अनाज की कालाबाजारी प्रत्येक वर्ष हो जाती है। अगर कृषकों को कोई भी विकल्प मिल जाय तो लगभग ८० प्रतिशत लघु एवं सीमान्त कृषक आज खेती छोड़ने के लिए तैयार बैठे हैं।
वर्ष २०१५ कृषि क्षेत्र के लिए एक चुनौतीपूर्ण साल था। देश के कई हिस्सों में रुखे मौसम और सूखे के कारण किसानों के लिए यह परेशानियों का लगातार दूसरा वर्ष था, जिसने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे के तत्काल समाधान की आवश्यकता का ध्यान आकर्षित किया।
दक्षिण-पश्चिमी मानसून इससे पिछले वर्ष में १२ प्रतिशत की कमी के बाद २०१५ में लंबी अवधि औसत के सामान्य स्तर से १४ प्रतिशत कम रहा, जिसका असर खरीद फसलों पर पड़ा। उत्तर-पूर्वी मानसून आया, वह तमिलनाडु एवं आस-पास के क्षेत्रों में भारी विनाश का कारण बना।
इन्हीं कारणों से देश के किसान अच्छी फसल अर्जित करने के लिए बेहतर मौसम स्थितियों को लेकर अभी से चिंताग्रस्त है। इस वर्ष नौ राज्यों ने सूखाग्रस्त जिलों की घोषणा की है। ये हैं कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना एवं झारखंड।
तमिलनाडु में अधिकांश जिलें तो इस वर्ष बाढ़ से बुरी तरह ग्रस्त रहे थे। इस वर्ष मौनसून समय पर है और संभावना है कि अच्छी वर्षा होगी।