भारत में प्रतिवर्ष बजट पेश किया जाता है। सप्ताह भर बजट की चर्चा सभी मीडिया में होती रहती है। कोई इसे अच्छा कहता है तो कोई बुरा। पर है क्या कभी समझ में आता है क्या ? इस पर से पर्दा उस दिन हट गया जब एक दिन गाय चराते हुए एक भाई ने मुझसे पूछ डाला कि ‘‘बजट’’ किस जीव का नाम है और आज – कल इसकी चर्चा क्यों हो रही है ?
आगे वह पूछता है कि इस जीव को भारत के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपने सूटकेश में क्यों बंद कर रखा था ? और जब उसे खोला तो इतना बवाल क्यों हुआ ? क्या बजट नाम का जीव कहीं भाग गया, जो इतना हो हल्ला है ? यह मेरे समझ से बाहर था ; उसे क्या उत्तर दूं। जब उसकी ओर देखता रहा तो उसका दूसरा सवाल था – आज तक किसी ने भी इस प्रश्न का उत्तर मुझे नहीं दिया, आप भी उसी में से एक हो। कोई बात नहीं, कभी न कभी तो उत्तर मिल ही जाएगा। न भी मिला तो जिस दिन जेटलीजी मिलेंगे, पूछ डालूंगा। वे तो बतला ही देंगे।
इस प्रश्न का उतर खोजने के पूर्व यह तो मालूम हो गया कि भारत में कोई एक चरवाहा नहीं ; बल्कि बहुतेरे लोग हैं जिन्हें बजट के बारे में पूरी – पूरी जानकारी नहीं है कि यह क्या है ? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए मैंने बजट के एक सप्ताह के अंदर शहर के २५ लोगों से और गांव के २५ लोगों से बातचीत किया। शहर के २५ में से १८ लोगों ने सही उत्तर दिए लेकिन गांव के २५ में से केवल ३ लोगों ने ही सही उत्तर दिया।
प्रश्न यह खड़ा होता है कि आज भी ६५ प्रतिशत लोग गांव में रहते हैं जहां के केवल १२ प्रतिशत लोग ही जानते हैं कि बजट क्या होता है ? शहर के ७२ प्रतिशत लोग इस विषय को जानते हैं लेकिन शहर की जनसंख्या ही ३५ प्रतिशत है। ऐसे में भारत की सरकार का कर्तव्य नहीं बनता कि वह भारत के लोगों को बजट बनाना और उसकी उपयोगिता को बतला दे। यह तो भारत की जनता का जन्म सिद्ध अधिकार है। लेकिन सरकारें कभी भी यह नहीं बतलाती कि बजट क्या है और इसकी क्या उपयोगिता है ? जबकि बजट में भारत के व्यक्ति – व्यक्ति की हिस्सेदारी होती है। व्यक्ति – व्यक्ति के पैसे का हिसाब होता है। व्यक्ति – व्यक्ति के कर्ज की देनदारी का हिसाब होता है। ऐसे में क्या व्यक्ति-व्यक्ति को समझाने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं होती कि बजट क्या है ?
कोई कह रहा है कि यह बजट किसानों के हित का है तो कोई कह रहा है कि उच्च वर्गों के हित का। अंतत: है क्या ? जब मैंने इस पर सरसरी निगाह डाली तो दिखा कि यह भारत के किसी भी वर्ग के हित का नहीं है बल्कि उन राष्ट्रों के हित का है जिनके अर्थशास़्त्री भारत के वित्त मंत्रालय में रहते हैं और दिन रात अपने राष्ट्र के हित में भारत के बजट का गणित लगाते रहते हैं। हमारे ब्यूरोव्रेâट्स तो उनके गणित पर अपना सील लगाने से ज्यादा काम नहीं करते हैं। ऐसे में भारत के सापेक्ष में भारत का बजट बने, यह वैâसे संभव है ?
देखते हैं एक उदाहरण – केन्द्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बजट की पेटी खोलने के बाद ही बोले कि ‘‘भारत के गांव के घरों पर बनने वाले भोजन में देशी इंधन के उपयोग से प्रदूषण इस कदर बढ़ रहा है कि एक चूल्हे के जलने से ४०० सिगरेट से निकलने वाला धुआं के बराबर है। तो क्या सरकार ; गांव के लोगों को चूल्हा जलाना बंद करा देगी और बना बनाया हुआ भोजन परोसेगी ? नहीं ; ऐसा नहीं हो सकता। फिर इसका क्या अर्थ है ?
सरकार के कहने का अर्थ है कि भारत में चूल्हे एल पी जी पर ही जले। यह बात सरकार नहीं कह रही है, बल्कि सरकार से गैस बेचने वाली विदेशी वंâपनियां कहवा रही है। भारत की जनसंख्या १२७ करोड़ है। जिनके लिए ४० करोड़ चूल्हे जलते हैं। जिनमें से लगभग २८ करोड़ चूल्हे कृषि से निकले हुए अनुपयोगी वस्तुओं और गाय आदि जीवों के गोबर के वंâडे से जलता है। गैर बेचनी वाली विदेशी / देशी वंâपनियों की निगाह इन्हीं २८ करोड़ चूल्हों पर है। इन २८ करोड़ चूल्हों के जलने से सरकार की कोई आवक – जावक नहीं होती है। यदि ये चूल्हे एल पी जी से जलने लगे तो सरकार की आवक और जावक दोनों बढ़ेगी। जिससे सरकार के आंकड़े में जीडीपी बढ़ जाएगा क्योंकि यह आंकड़ा ३६० हजार करोड़ प्रति वर्ष का है।
गैस वंâपनियां भारतीय चूल्हे को बदनाम इसलिए कर रही हैं कि क्योंकि उन्हें गैस बेचना है और सरकार उनके शब्दों में वायुमंडल प्रदूषण का राग इसलिए अलाप नही है क्योंकि भारत के ब्यूरोव्रेâट्स किसी भी कीमत पर देश का जीडीपी बढ़ा कर सरकार को खुश करना चाहते हैं। यदि ऐसा हुआ तो विश्व बैंक भारत को ज्यादा कर्ज दे सकेगा।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों के चूल्हे को गैस आधारित करने के पीछे यही राज है लेकिन इससे भारत के ग्रामीण जनसंख्या पर ३६० करोड़ का अतिभार आएगा। जिसकी चिंता भारत की सरकार को नहीं है। अत: क्या यही विकास है ? ऐसे बजट को भारत की जनता समझ नहीं पा रही, कोई अर्थशास्त्री समझा कर तो देखे।