भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल इतना बुरा है कि इक्के-दुक्के लोग ही दिल खोल कर कह सकते हैं कि वे पूरी तरह से स्वस्थ हैं, निरोगी है। भारत सरकार और प्रदेश सरकारों द्वारा उपलब्ध कराई गई सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। प्रत्येक वर्ष स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, रोगी के लिए प्रयाप्त डॉक्टर, विभिन्न रोगों के कारण होने वाली मौतें, संक्रामक बीमारियों पर काबू पाने में विफलता आदि को लेकर आंकड़े आते हैं।
आंकड़े बताते हैं कि १३०० लोग प्रतिदिन कैंसर से मर रहे हैं, प्रतिदिन २५०० लोग हृदयघात से मर रहे हैं। एक तिहाई आबादी क्षयरोग से ग्रसित है। २५ प्रतिशत पुरुष और ३० प्रतिशत महिला आबादी बांझपन से ग्रसित है। सरकार खुद स्वास्थ्य से जुड़े तमाम पहलुओं पर अध्ययन कराती रहती है। परिणाम आने के बाद वादा किया जाता है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने का प्रयास किया जाएगा, मगर स्थिति बिगड़ती ही जा रहबद से बदतर होती नजर आतौ। सेंट्रल ब्यूरो फॉर हेल्थ इंटेलीजेंस के ताजा आंकड़े भी यही कहते हैं। सरकारी अस्पतालों में रोगियों के अनुपात में डॉक्टरों की संख्या जरूरत से काफी कम है। एक अस्पताल पर करीब इकसठ हजार रोगियों को स्वास्थ्य सेवाएं देने की जिम्मेदारी रखी गई है। अठारह सौ तैंतीस लोगों पर एक बिस्तर का लक्ष्य है और एक एलोपैथिक डॉक्टर पर ग्यारह हजार से ज्यादा लोगों के इलाज करने की जिम्मेदारी है।
कई प्रदेश ऐसे हैं जहां पर रोगी और डॉक्टर का अनुपात काफी चिंताजनक है। इसके कारण लोगों को निजी अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है और इलाज पर लगातार अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय स्थिति का नतीजा है कि टीबी, मस्तिष्कज्वर, डेंगू, मलेरिया जैसी अनेक ऐसी बीमारियों पर भी काबू पाना मुश्किल बन गया है। जिनमें सामान्य उपचार से रोगी ठीक हो सकता है। स्वास्थ्य संबंधी जो लक्ष्य और बहुत-से देशों के साथ-साथ भारत ने भी स्वीकार किए हैं उन्हें पूरा करने में हमारी प्रगति कतई संतोषजनक नहीं है। इसके पीछे का कारण ज्ञात है – भारत के लोगों के स्वास्थ्य का ठेका एलोपैथी पद्धति ने ली है और इसी के कारण भारत की अपनी स्वास्थ्य तकनीक समाप्त होने के कागार पर आ गया है। ऐसे में न तो हमें अपनी चिकित्सा पद्धति से स्वास्थ्य लाभ मिल रहा है और न ही एलोपैथी कारगर हो रहा है।
भारत ने इन लक्ष्यों के तहत प्रसव के समय होने वाली मौतों और शिशु मृत्यु दर में कमी लाने का संकल्प लिया था लेकिन वही ठाक के तीन पात। प्रसव के पारंपरिक तरीके भी नष्ट कर दिए गए और एलोपैथी कारगर भी नहीं हो रहा है। इस संदर्भ में कई राज्यों के आंकड़े चेतावनी – भरे हैं। सरकार की जननी सुरक्षा योजनाओं कूड़े में फेंक देने जैसी हालत में आ चुकी है। प्रश्न यही उठता है कि इतना कुछ होने के बाद भी हमारी सरकारें चेतती नहीं है। इसे गंभीरता के साथ नहीं लेती है। ऐसा भी नहीं कि प्रशिक्षित डॉक्टरों की कमी है। देश के चार सौ चिकित्सा संस्थानों से हर साल करीब सैंतालीस हजार विद्यार्थी एमबीबीएस करके निकलते हैं। जिनके आंकड़े देखे जाएं तो ज्यादातर निजी अस्पतालों में अपनी सेवाएं व्यापारी की तरह देते हैं। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एमसीआइ (भारतीय चिकित्सा परिषद्) में पंजीकरण कराने वाले विद्यार्थियों की तादाद लगातार घट रही है। पीछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष करीब आधे विद्यार्थियों ने ही पंजीकरण कराया है। ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में चिकित्सा सेवाएं देने से कतराने वाले डॉक्टरों के खिलाफ कड़ा कदम उठाते हुए सरकार ने नियम बनाया कि उन्हें कम से कम एक साल ऐसे क्षेत्र में काम करना जरूरी होगा। मगर उसका कोई असर नहीं हुआ।
यही कारण है कि आज के भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी वे लोग ही चिकित्सा सेवा प्रदान कर रहे हैं जिनके बारे में सरकार और उसके पैसे से पलने वाली परिषद् ‘‘झोलाछाप’’ डॉक्टर कहती रही है। वास्तव में ऐसे डाक्टर ही भारत की ७० प्रतिशत आबादी की चिकित्सा कर रहे हैं। जिनके खर्च भी कम हैं और वे स्वयं के अभ्यास से डॉक्टरी कर पाते हैं। ऐसे में सरकार चाह कर भी उन्हें चिकित्सक होने का प्रमाण नहीं दे पा रही है। फिर हम वैâसे कहें कि ‘‘कल का भारत – निरोगी भारत’’ हो पाएगा ?
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे में रास्ता क्या है ? इसमें कई रास्ते निकल सकते हैं। जैसे १) सरकार निरोगी जीवन के सूत्रों को शिक्षा माध्यम में डाले। २) छोटी – छोटी चिकित्सा विद्याओं की मान्यता सरकार दे। उसके ज्ञान को प्रसारित करने के ऊपाय करे। ३) खासकर घरेलू चिकित्सा विद्याओं को गंभीरता के साथ लिया जाए। ४) भारत के लोगों को निरोगी रहने के तीन आयुर्वेदिय सूत्रों को भारत के जन-जन से जोड़ा जाए। क) गाय, ख) तुलसी का पौधा और ग) रसोईघर। इन तीनों पर फिर से यदि कार्य किया जाए और उससे भारत के व्यक्ति – व्यक्ति को जोड़ा जाए तभी भारत निरोगी हो सकता है। वरणा एलोपैथी की नीतियों से जिस प्रकार अमरीका और यूरोप तबाह हो गया है ऐसा ही परिणाम ४-५ वर्षों में यहां भी आने वाला है। अत: हमें समय रहते चेतने की जरुरत है।