अर्थात उत्तम खेती (कृषि कार्य )हमारे समाज में सर्वोत्तम कार्य है, माध्यम बान( व्यापार) – व्यापार को मध्यम स्तर का कार्य कहा गया है । चाकरी माने नौकरी को निकृष्ट कार्य कहा गया है इसे कुत्ते की तरह दुम हिलाने जैसी संज्ञाएँ हमारे बुजुर्ग देते आये हैं।
सदियों से चली आयी ये भारतीय अवधारणा आज बिलकुल उलटी हो गयी है। और जब से हमने इसे उलटा है हम विनाश की ओर ही अग्रसर हो रहे हैं। अगर इस कहावत को सही परिपेक्ष्य में हमारा समाज और हमारे राजनेता समझ लें तो देश की अनेकों समस्याएं चुटकियों में सुलझ जाएँ।
आज खेती सबसे निकृष्ट कार्य है, व्यापार अब भी मध्यम ही है किंतु नौकरी अब सर्वोत्तम कार्य है। चाहे किसी बड़े किसान का बच्चा हो या किसी बड़े व्यापारी का बच्चा सभी का सपना अब एक अच्छी नौकरी करना ही रह गया है।
स्वर्गीय राजीव भाई हमेशा कहते थे भारतीय समाज कभी भी कंपीटिटिव या प्रतिस्पर्धी नहीं रहा हम तो कोआपरेटिव यानि सहयोगी समाज रहे हैं। और इसकी अवधारणा यही रही की हमने खेती को उत्तम माना क्योंकि खेती में प्रतिस्पर्धा नहीं होती सिर्फ सहयोग होता है । जबकि नौकरी सदा ही प्रतिस्पर्धा का खेल होता है चाहे उसे पाने के लिए हजारों के बीच चुना जाना हो या उसे बनाये रखते हुए ऊपर चढ़ने के लिए , इसमें हर समय प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है।
यही नौकरी पाने की ललक जो हम अपने बच्चों के मन में पैदा होते ही भर देते हैं की हमारा बच्चा दिन रात बस प्रतिस्पर्धा के बारे में सोचता है और जीता है ।
बढ़िया कहे जाने वाले अंग्रेजी माध्यम के कान्वेंट हों ,या पब्लिक स्कूल हों , या फिर इंटरनेशनल स्कूल हों (जो नेशनल भी नहीं बन पाते वो इंटरनेशनल बन जाते हैं) सभी स्कूलों में पहले दाखिले के लिए कम्पटीशन करना पड़ता है , जिनका दाखिला नहीं हो पाता पहले उनके माँ -बाप सदमे में आते हैं जिसे आजकल एक महँगी बीमारी डिप्रेशन कहा जाता है और इन माँ बाप का डिप्रेशन धीरे धीरे उनके अबोध बच्चों के जीवन में जहर की तरह घुलना शुरू हो जाता है। जिनका दाखिला हो गया वो भी डिप्रेशन की दलदल में गोते लगाते हैं कि अब मेरा बच्चा अपनी कक्षा में प्रथम आये और रोज उसे उलहनाएँ देकर उसे डिप्रेशन में लाते हैं । धीरे धीरे बच्चा इस तनाव भरे वातावरण में बड़ा होता है फिर उसके जीवन में बड़ा तनाव आने ही वाला है और वो है नौकरी पाने का तनाव जिसे लेने के लिए उसे फिर कम्पटीशन यानि प्रतिस्पर्धा करोड़ों बच्चों से करनी पड़ती है। करोड़ों में से कुछ हजार जो पास किया वो अब बड़ी प्रतिस्पर्धा में और जो नहीं हुआ उसके डिप्रेशन का चक्र अब और बड़ा हो गया।
नौकरी में रहने और बढ़ने के लिए लगातार प्रतिस्पर्धा । हमारे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं बस प्रतिस्पर्धा। मनुष्य जीवन की पूरी अवधारणा बस जंगल में रहने वाले जीव जन्तुओं की तरह डर के साए में मरने वालों की तरह हो गयी है कि कौन मुझे खा जायेगा।
इसी प्रतिस्पर्धा ने एक नयी बीमारी दी है और वो है आरक्षण। अंग्रेजों ने देश को तोड़ने के लिए देश को आरक्षण आधारित जातियों में बांटा जैसे जनरल जाति, SC जाति, ST जाति, और ओबीसी जाति।
1947 की आजादी के बाद अब सभी जनरल जाति वाले जिन्हें कोई आरक्षण नहीं मिलता अन्य तीन जातियों में जाने को प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं ताकि उनके बच्चों को नौकरी वाली पढाई और फिर नौकरी में आरक्षण मिले।
कहीं गुज्जर समाज को आरक्षण चाहिए, कहीं पटेलों को आरक्षण चाहिए और कहीं जाटों को आरक्षण चाहिए। जो पहले ही आरक्षित हैं वो कहते हैं इस सूची में औरों को मत डालो क्योंकि फिर प्रतिस्पर्धा हमारे कोटे में और बढ़ जायेगी।
आरक्षण में जाने की प्रतिस्पर्धा में गुज्जरों, पटेलों और जाटों ने पूरे देश को रोकने का जोर लगाया । सड़कें जाम की , ट्रेन की पटरी पर लेटे, पानी की आपूर्ति बंद करी और तो और जाट समाज के बिके हुए नेता यशपाल मलिक ने नया फतवा जारी किया है कि हर दुकानदार को अब अपनी दुकान के बाहर जाट आरक्षण के पक्ष में एक बोर्ड लगाना है। जो नहीं लगायेगा उसकी दुकान का सामाजिक बहिष्कार करेंगे।
ये वही जाट समाज है जो खेतों में पसीना बहाकर मिटटी से अन्न रूपी सोना उगलता था, जिसके बच्चे शारीरिक दमखम के बल पर सेना में जाकर दुश्मन के दांत खट्टे करते हैं।
किन्तु नीच चाकरी को पाने की प्रतिस्पर्धा ने हमारे बचपन, जवानी और बुढ़ापे को कभी समाप्त न होने वाली आग में धकेल दिया है।
जबकि भारतीय खेती का अर्थ है गौ माँ के गोबर गौमूत्र को मिटटी में डालकर करोड़ों सूक्ष्म जीवियों को भोजन कराना और उनको कराये भोजन से वो सूक्ष्म जीव मिटटी की उर्वरक क्षमता को बढ़ा कर अमृत रूपी अन्न को पैदा करते हैं जो करोड़ों लोगों का पेट भरकर नया जीवन देता है। इस उच्च कार्य में कहीं कोई कम्पटीशन नहीं है सिर्फ सहयोग है। करोड़ों सूक्ष्म जीवों को भोजन कराने की सेवा है , और पैदा हुए अन्न से मनुष्य रूपी जीव को जीवन देने की सोच है । इस खेती के कार्य में लगे अन्य जीवों( बैल, गाय , कीट, पक्षी) के सहयोग की अपेक्षा है कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है।
अगर हमें अपने और अपने बच्चों के जीवन को इस डिप्रेशन की बीमारी से निकलना है तो ये सोचना होगा की मेरे बच्चे को किसी की नौकरी नहीं करनी। जैसे ही ये विचार बनाने में हम सफल हुए तो डिप्रेशन का कोढ़ ऐसे गायब होगा जैसे गधे के सर से सींग। और हम देखेंगे कि बच्चे का न सिर्फ बौद्धिक विकास होगा बल्कि शारीरिक क्षमता भी बढ़ेगी। ऐसे बच्चे ही आगे चलकर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, चाणक्य, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, आर्यभट्ट , चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट जैसे महान भारतिय बनेंगे।
फिर किसी समाज को आरक्षण नहीं चाहिए होगा। देश के लोग फिर सड़कें जाम नहीं करेंगे बल्कि सड़कों को बनाने के काम में लगेंगे।