दिल्ली पिछले ७०० वर्षों से चाह रहा है कि भारत की विविधता समाप्त हो जाए और भारत में एक नई अपसंस्कृति का उदय हो जिसके पास अपनी कोई चेतना न हो। एक टिगना सा साधारण भी दिल्ली की कुर्सी से भारत पर सत्ता कर सके। यही कारण है कि मुगलों के समय से अंगरेजों के समय तक और अब काले अंगरेजों के समय में भी वैसी ही जुगत चल रही है।
जल्लीकट्टू और रकला तमिलनाडु की पारंपरिक पांच हजार से भी अधिक पूरानी संस्कृति है। इस संस्कृति में बंधकर ही आज तमिलनाडु ने अपने राज्य की सभी १६ गऊ प्रजातियों को बचा कर रखा है। आज भारत में कोई ऐसा राज्य नहीं है जिसने अपनी सभी प्रजातियों को बचा पाया है। उदाहरण – गुजरात ने गीर और कांकरेज को बचा लिया लेकिन शेष ६ से ८ गऊ प्रजातियों कहां गई ? राजस्थान ने थारपारकर, राट्ठी और नागौरी को बचा लिया लेकिन शेष की १२ से १४ प्रजातियों को क्या हुआ ?
तमिलनाडु की १६ प्रजातियों में एक कांगायम है। जो सेलम के आस – पास पाई जाती है। इतिहास गवाह है कि कांगायम के बैल को यदि बैलगाड़ी में जोत दें और यदि सड़क कच्ची हो तो बैल ६० किलोमीटर प्रतिघंटे की गति से दौड़ते थे। यदि बैलगाड़ी में ४ से ६ टन भार डाल दो तो दो बैल झूम कर चलते थे। आज भी कांगायम के ऐसे बैल मिल जाएंगे। इसी प्रकार दूसरी प्रजातियां भी हैं। तेज दौड़ने में ऊम्बलाचेरी और बरगूर का भी कोई जो़ड़ नहीं।
ये सभी प्रजातियां तमिलनाडु की धरती पर आज भी बची हुई हैं क्योंकि तमिलों ने जान पर खेलकर और भारत सरकार के आदेशों की धज्जियां उड़ाकर जल्लीकट्टू और रकला को जीवित रखा। नमन है उन भाईयों को जो आज भी अपने आप को इंडियन मानने से पहले द्रविड़ीयन मानते हैं।
जल्लीकट्टू अद्भुत खेल था। इस खेल के लिए नंदियों का संवर्धन किया जाता था। मकर संक्राति के पर्व (पोंगल) के दूसरे दिन गायों के लिए पोंगल मनाया जाता है। जिसे माडु पोंगल कहते हैं। इस दिन गांव के बाहर मेला लगता था। जिसमें सबसे तगड़े नंदी को मैदान में उतारा जाता था। उस नंदी पर पकड़ बनाने के लिए अविवाहित युवा मैदान में उतरते थे। गांव के प्रधान की बेटी का स्वयंबर होता था। जो युवा नंदी को अपने वश में कर लेता, उससे उस बेटी का विवाह होता था। अब ऐसा नहीं हैं, लेकिन नंदी को वश में करने का खेल जारी है।
जल्लीकट्टू के लिए आज भी संवर्धित नंदी चाहिए, इसलिए नंदियों के संवर्धन का कार्य आज भी गऊप्रेमी अपने खर्च से करते हैं। खेल – खेल में नंदियों के संवर्धन का कार्य बिना सरकारी खर्चे के तमिलनाडु में चल रहा है। यह यूरोप को कभी भी नहीं भाया। इसीलिए पोटा और पोटा की मानसिकता वाले लोग इस खेल को समाप्त करवाना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि अभी भी तमिलनाडु में नंदियों का संवर्धन हो। गाय की मूल प्रजातियां बची रहे।
गायों के संवर्धन की दिशा में हो रहे प्रयास का असर तमिलनाडु पर भी हुआ। धीरे – धीरे यहां के लोग भी जागरुक हुए और गायों को बचाने का उपक्रम शिखर पर पहुंचा। इस बार जल्लीकट्टू और रकला को बंद करने के आदेशों के खिलाफ पूरा तमिलनाडु एकजूट हुआ। दक्षिण की सभी रेलें रोक दी गई, चेन्नै के मेरिना तट पर ७ लाख लोग प्रदर्शन के लिए उमड़े और मामला सरकार को भारी पड़ गया। इस एकजुटता के लिए साहसी कदम फिल्म स्टारों ने भी लिया। रजनीकांत और कमल हासन से लेकर धनुष आदि ने भी जल्लीकट्टू और रकला के समर्थन में ट्वीट किए। यह आग में घृत का कार्य किया। उधर तमिलनाडु के सांसद जो दिल्ली में हैं उन्होंने भी जल्लीकट्टू और रकला के समर्थन में बयान दिए। सांसद तम्बीदुरै ने साहसिक बयान दिए। तमिलनाडु वेâ फिल्मी और राजनीतिक लोग अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए एकजूट हो गए। न तो सुप्रिम कोट की चली और न ही केन्द्र की सरकार की। अंतत: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी तमिलनाडु की संस्कृति की रक्षा हो, ऐसा ट्विट कर ही दिया। देखते ही देखते पोटा की औकात निकल गई। जल्लीकट्टू और रकला को हरी झंड़ी मिल गई। मेनका गांधी की जुबान सीली रह गई।
इसलिए संपूर्ण भारत ‘द्रविड़म् शरनम् गच्छामी’ हो जाए। अर्थात् द्रविड़ों की भांति अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए एकजूटता का पाट्ठ पढ़ ले। उत्तर भारत के बहुतेरे गऊप्रेमी संत दिल्ली में धरना – प्रदर्शन करते हैं। इसके लिए कई वर्षों तक प्रवास करते हुए लोगों को एकजूट करने का प्रयास करते हैं। लेकिन इस बार जो तमिलनाडु में हुआ, उसके पीछे कोई संत की ताकत नहीं बल्कि स्वयं द्रविड़ों ने कमर कस ली थी और एक ही प्रदर्शन में केन्द्र के आदेशों को अपने पक्ष में करवा लिया। सरकार जनता के पीछे आई।
उत्तर भारत के संतों के लिए यह सीख का विषय है कि गऊरक्षा के लिए एकजूटता जरुरी है। -क्रमश:
‘‘द्रविड़म शरणम गच्छामी’’-भाग २
द्रविड़ भाषा संस्कृत के समकक्ष
बात केवल ‘‘जल्लिकट्टु’’ और ‘‘रकला’’ का नहीं है। तमिलनाडु के लोगों में अपनी संस्कृति को बचाकर, संभालकर रखने की प्रवृत्ति है। यही कारण है कि तमिल भाषा के लिए १९४५ से ही दिल्ली से तकरार चल रहा है। तमिल भाषा की गरिमा की लड़ाई। दिल्ली समझता आया है कि तमिलनाडु के लोग हिन्दी भाषा के खिलाफ हैं और द्रविड़ियन समझते आए हैं कि उनके ऊपर तमिल को हटाकर हिन्दी थोपने का कार्य हो रहा है। परन्तु दोनों तरफ ऐसा नहीं है। तमिलनाडु हिन्दी के खिलाफ नहीं है और दिल्ली हिन्दी थोपना नहीं चाहती। प्रश्न उङ्गता है कि फिर लड़ाई दिल्ली और तमिलनाडु के बीच क्या है ?
संस्कृत देववाणी है। अर्थात् देवताओं से आई हुई वाणी। देवता कहां से आए हैं ? देवता और बाद में हम मंगल ग्रह से आए हुए हैं। मंगल जब जलने वाला था तब देवताओं ने पृथ्वी को खोजा और पृथ्वी पर बसने की योजना बनाई। लेकिन मनुष्य कभी भी सशरीर मंगल से पृथ्वी पर नहीं आया। शरीर तो ग्रह के तत्वों से बना है। वह ग्रह के गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बाहर नहीं जा सकता। अर्थात् सुक्ष्म शरीर मंगल से पृथ्वी पर आकर बसा। संस्कृत वहीं से आया हुआ सूर है। बाद में भाषा बनी। इसीलिए कहा गया है कि संस्कृत देववाणी है। इससे पहले हमारा सुक्ष्म शरीर वृहस्पति पर था। जब वृहस्पति को जीवों ने खाकर समाप्त किए तब मंगल को खोजा गया। मंगल भी एक दिन जला, तो हम पृथ्वी पर आए। अब पृथ्वी भी जलने वाली है। तब हमें शुक्र पर जान होगा। मनुष्य का एक ग्रह से दूसरे ग्रह की यात्रा में संस्कृत साथ रही। इसी प्रकार गाय भी साथ रही है। लेकिन दूसरे जीव बदलते रहे हैं। तमिल भाषा का इतिहास इतना ही पुराना है। अर्थात् संस्कृत भाषा के समकक्ष है। ऐसे में तमिल भाषा से द्रविड़ियनों का लगाव स्वभाविक है।
यह भी सत्य है कि तमिल भाषा बड़ी वैज्ञानिक है। आज का वंâप्यूटर जितनी आसानी से संस्कृत को समझ पाता है उतनी ही आसानी से तमिल को भी समझ पाता है। तमिल भाषा का अपना व्याकरण है, उसमें सातो सूर और ताल हैं। लय – छंद और लकारें हैं। इसलिए बड़ी आसानी से गीत बनते हैं। गीतों में माधुर्यता होती है। और जब वीर रस की आवश्यकता होती है तब मृदंग के ताल भी हैं। नगाड़ों की ध्वनि से मनुष्य की नाड़ी में दौड़ने वाले रक्त में उष्णता के साथ वेग उत्पन्न हो जाता है।
मुगल इसे बदल नहीं पाए। अंगरेज इनका कुछ बिगाड़ नहीं पाए। द्रविड़ियनों ने अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए सदियों से खून बहाया है। जब भी संस्कृति का प्रश्न उङ्गा है, ये लोग एक जूट हुए हैं। कन्याकुमारी से चेन्नै तक की भीड़ में कभी भी विरोध का स्वर नहीं दिखा है। यही कारण है कि जब द्रविड़ियन खूंटा गाड़ देता है तो सभी द्रविड़ियन उसमें बंध जाते हैं। फिर उनका जीना और मरना उनकी संस्कृति होती है।
भारत का द्रविड़ांचल अब गाय के लिए जाग चुका है। गाय में द्रविड़ संस्कृति रची – बसी है। यह उसे समझ में आ गया है। बस ; कुछ वर्ष और इंतजार करें। द्रविड़ भूमि से उङ्गा हुआ गाय का यह आंदोलन राष्ट्रीय रूप लेगा और तब दिल्ली भी इस आंदोलन को कुचलने में असहाय होगी। इतिहास गवाह है कि द्रविड़ांचल से आंदोलन उङ्गते नहीं, यदि उङ्ग गए तो कुचले जाते नहीं। दिल्ली को मानने पर विवश होना पड़ेगा। एक बानगी – १९४७ में पंडित जवाहरलाल नेहरु और माऊंटबेटन नाक रगड़कर रह गए थे, फिर भी द्रविड़ नेता रामासामी पेरियार और अन्नादुरै पर नवैâल नहीं लगा। इन दोनों नेताओं ने जैसे चाहा वैसे अपने लिए कानून बनवा लिए और अपनी अखंड़ता को बनाए रखा। इसीलिए आज के द्रविड़ांचल में भारत दर्शन होता है। वही भारत जो मुगलों के पहले था। वही भारत जो अंगरेजों के पहले था।
कन्याकुमारी से चेन्नै तक उङ्गे इस सफल आंदोलन ने सोए हुए द्रविड़ं आत्मा को जगा दिया है। बड़ी तेजी के साथ गाय के प्रति द्रविड़ों की मानसिकता वापस अपने मूल की ओर लौट रही है। व्यक्ति – व्यक्ति में गाय के लिए तड़प बन खड़ी हुई है। गाय के सानिध्य को पाने की लालशा तैयार हो गई है। अत: अब वह समय दूर नहीं, गाय समग्र बचेगी और आंदोलन की लौ उत्तर भारत की ओर जाएगी। एक – एक राज्य तैयार होंगे, राज्य की जनता तैयार होगी, सरकारें देखती रह जाएंगी और व्यक्ति – व्यक्ति उङ्ग खड़ हो जाएगा। कानून की सार्थकता समझ में आ जाएगी कि व्यक्ति के लिए कानून बना है न कि कानून के लिए व्यक्ति है।
इसीलिए भारत का भविष्य – ‘‘द्रविड़म शरणम गच्छामी’’ में ही है। अर्थात् यदि भारत को बचाना है तो द्रविड़ों की शरण में जाएं। एक बानगी – इन्हें समझ में आ गया है कि कोक और पेस्सी के उत्पाद हमारी संस्कृति को तबाह कर सकती है। देखें तमाशा – १ मार्च से तमिलनाडु में कोक – पेप्सी और बोतलबंद पानी की छुट्टी। तमिलनाडु के सबसे बड़े व्यापारी संघम् ने पेप्सी – कोक उत्पाद को पूरे प्रदेश में नाकेबंदी कर दिया। भारत का यह पहला राज्य है जिसकी जनता ने कोक – पेप्सी से टकराने की हिम्मत जुटा ली है। अब इसका बैंड बजने ही वाला है। अब सरकारें कोक – पेप्सी को बचा नहीं पाएगी।
इसलिए हो जाईये – ‘‘द्रविड़म शरणम गच्छामी’’। क्रमश: