फिरंगियों ने हमारी संस्कृति को तहस – नहस करने के लिए क्या – क्या नहीं किए। जिनमें से एक है काले अंगरेजों को पैदा करना। जिन्हें अभी तक भारत और भारतीयतता की समझ नहीं बनी है। तमिलनाडु में सदियों से नंदी के खेल जिसे जल्लीकट्टू कहते हैं, चलते आया है। जिस पर राजनीतिज्ञों द्वारा प्रतिवर्ष प्रतिबंध के फतवे निकाले जाते हैं।
हलाँकि इस फतवे का कोई असर यहां के लोगों में नहीं होता। बल्कि लोग जिद्द में आकर खासकर इसे खेलते हैं रहे और अपनी खुन्नस सरकार के प्रति निकालते हैं। पहली बार केन्द्र सरकार ने इस खेल की सच्चाई को समझा और प्रतिबंध को हटाया। इससे काले अंगरेज, जैसे बौखला गए और हाय तौबा मचाने लगे। ऐसे संस्कृति विहिन लोगों को क्या कहेंगे ? जिनके पास समाजशास्त्र का अरस्तुई सूत्र है जो कहता है कि नारियों में आत्मा नहीं होती। नारियों को पशु वे समझते हैं और आरोप तुलसीदासजी पर लगाते हैं।
केन्द्र की सरकार ने जो सही समझा है वह यह कि मनुष्य केवल उन्हीं को संभालकर रखता है जिसकी उपयोगिता हो। यही कारण है कि सभी जीवों की भूमिका मनुष्य के साथ भारत में रही है। तमिलनाडु के अद्भुत नंदियों के संवर्धन के लिए जल्लीकट्टू के खेल खेले जाते थे। लोग शौर्यता के प्रदर्शन के लिए उच्च कोटी के नंदी का पालन – पोशन करते थे। इससे हमारी गाय संवर्धित होती थी। जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध के बाद उच्च कोटी के नंदियों की कोई भूमिका नहीं रही जिसके कारण लोग नंदी पालन छोड़ दिए। आज तमिलनाडु में उच्च कोटी के नंदी नहीं हैं। कई जाति ही पूरी तरह से समाप्त हो गए। तमिलनाडु के १६ प्रजातियों में अभी मुश्किल से ७ प्रजातियां बची है।
पशुक्रूरता के नाम पर इन काले अंगरेजों ने जो हाय तौबा मचाया इसमें केवल तमिलनाडु ही नहीं है बल्कि सभी प्रदेशों में ऐसे कई खेल हैं जिसमें पशुओं की भूमिका रही है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि पशुओं की सुरक्षा के लिए ही ऐसे खेलों की परिकल्पना की गई थी। ऐसा ही एक संदर्भ है सापों के साथ। सापों की कई प्रजातियां लुप्त हो गई। सांपों का अस्तित्व ही आज संकट में है। किसी भी प्रकार के सांप को देखकर लोग भाग खड़े होते हैं और उन्हें मार देते हैं। लेकिन जब तक देश में सपेरे थे ऐसी स्थिति नहीं थी। सपेरे सापों के ज्ञान को बांटने के लिए सापों को पालते थे और गांव – गांव घूमकर उसे दिखलाते भी थे। सापों से पहचान कराते थे कि कौन – कौन से सर्प विष वाले हैं और कौन – कौन से विषहीन हैं। उसके विज्ञान को बतलाते थे। उसके दंश की चिकित्सा बतलाते थे। तब लोग सांपों से नहीं डरते थे। बल्कि केवल विष वाले सर्प से डरते थे। सांपों में बहुत कम ऐसी प्रजातियां हैं जिनके पास विष होता है। लेकिन उनके चक्कर में वे सांप भी मारे जाते हैं जिनके पास विष नहीं है। यह सब हुआ सपेरों की प्रजाति को समाप्त करने से। उनपर सांप व्रुâरत के कानून लाने से। एक पूरी पीढ़ी जिसके पास संर्पदंश का अद्भुत विज्ञान था, समाप्त हो गया। इससे देश में सापों की संख्या प्रभावित हुई है। अब खेतों और जंगलों में पहले जितने सांप नहीं हैं।
दुख इसी बात का होता है कि शुरु से ही गाय कटती आ रही है, इस पर कोई काला अंगरेज जुबान नहीं खोलता। जैसे उन्हें विषधर ने सूंघ लिया है लेकिन जैसे ही किसी नंदी को प्रशिक्षित करने के लिए कोई डंडा मार दे तो उस पर पशुक्रूरता अधिनियम लग जाता है। गायों को बचाए रखने के लिए उनकी उपयोगिता जरुरी है। नंदी को बचाए रखने के लिए उनकी उपयोगिता बहुत जरुरी है। नंदी की भूमिका केवल गाय के गर्भधारण से है। ऐसे में इसकी उपयोगिता कम होने के कारण ही नंदी लुप्त हो गए। ऐसे में जल्लीकट्टू बड़ी सार्थक समझ वाली संस्कृति है।
एक वृक्ष / पशु / पक्षी आदि के जन्म, विकास और उसके पुष्पित / संवर्धित होने में समूची सृष्टि का योगदान होता है। धरती, बादल, सूरज और हवाएं सब मिलजुल कर उसकी परवरिश करते हैं। उसके कटने पर इंसान भी कटता है, और पूरी प्रकृति भी थोड़ा मरती है
नेपाल का गढ़ीमाई मंदिर ट्रस्ट में पशुओं की बलि दी जाती रही है। काठमांडो से करीब एक सौ साठ किलोमीटर दूरी पर यह ‘उत्सव’ बिहार की सीमा से लगे हुए मंदिर के इर्दगिर्द मनाया जाता है। कई दिन चलने वाले इस धार्मिक ‘समारोह’ में भैंसों के अलावा अनेक तरह के पक्षी, सुअर और बकरे भी मारे जाते हैं। इस पर रोक लगाई गई, बात समझ में आती है कि अब इसकी कोई उपयोगिता नहीं रही होगी। लेकिन जहां पर जीवों के संवर्धन के लिए खेल खेले जाते हैं उसमें उन्हें क्यों पीड़ा होती है। अभी – अभी असम में पिपहिया पक्षी के खेल को भी प्रतिबंधित किया गया। कारण – पक्षी व्रुâरता। असम में आज इस खेल के कारण पिपहिया पक्षी बची है। जिसका सरोकार प्रकृति के साथ अद्भुत है। यह खेल प्रतिबंधित हुआ तो निश्चित रूप से पिपहिया का भी अस्तित्व मिट जाएगा।
संसार में अकेले रहो, गैंडे के सींग की तरह अकेले। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि केन्या में एक गैंडा अपने सींग की वजह से ही अब अकेला हो चुका है। सूडान नाम का यह नर-गैंडा इस धरती
यह पशुक्रूरता कानून पालकों के ऊपर नहीं लगने चाहिए। पशुओं को मार कर उनके अंग बेचने वाले जो लोग हैं, उनमें और पशु पालकों में अंतर है। असम के काजीरंगा अभयारण्य में गैंडों के अवैध शिकार की खबरें हमेशा आती रहती हैं। हाथी जैसे अति संवेदनशील पशु को उसके दांतों के लिए भयंकर निर्ममता के साथ मारा जाता है। पशुओं के प्रति क्रूरता पूरे विश्व में महामारी की तरह फैली हुई है। अफ्रीका के नामीबिया में हर वर्ष जुलाई से नवंबर के बीच सील के करीब पचासी हजार छोटे बच्चों को मोटे डंडों से कूट-कूट कर मारा जाता है। इसी तरह डेनमार्क और अटलांटिक के फरो द्वीप में हजारों की संख्या में हर वर्ष व्हेल को मारने का रिवाज है। लोग यह सिर्फ शौक से करते हैं, क्योंकि व्हेल को न खाने की वैज्ञानिकों ने चेतावनी दे रखी है। गौरतलब है कि हमारे इस व्यवहार के कारण धरती से हर रोज वनस्पति और जीव-जंतुओं की ढाई सौ प्रजातियां लुप्त हो रही हैं! नन्ही गौरैया, पक्षीराज गिद्ध से लेकर बाघ जैसे शानदार जीव तक! हाल ही में आस्ट्रेलिया में आदेश पारित हुआ है कि अगले कुछ वर्षों में बीस लाख बिल्लियों को मारा जाएगा! बिल्ली की कुछ प्रजातियों पर जंगली बिल्लियों के खतरे के मद््देनजर सरकार ने २०२० तक इनको मारने की घोषणा की है। आस्ट्रेलिया के पर्यावरण मंत्री ग्रेग हंट ने जंगली बिल्लियों के खिलाफ जंग की घोषणा कर दी है।
तमिलनाडु में जल्लीकट्ट को फिर से इजाजत दिए जाने की अधिसूचना केंद्र में बैठी भाजपा सरकार ने जारी की। क्योंकि उन्हें इस खेल की समझ बनी है। तमिलनाडु में जल्लीकट्टू का आयोजन पोंगल के अवसर पर बड़े पैमाने पर धूमधाम से होता है। चार साल पहले इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। उस समय जारी हुई अधिसूचना को सर्वोच्च न्यायालय ने जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध को सही ठहराया था। फिर भी मोदी सरकार ने हरी झंडी दे दी। यह अलग बात है कि न्यायालय अभी तक अपने रुख पर अड़ा है।