प्रजा धनी तो राजा धनी, धर्मम् मूलम् अर्थम्, अर्थम् मूलम् धर्मम्
“प्रजा धनी तो राजा धनी” यही था 15वीं सदी तक के भारत का मूल मंत्र. यह भारत स्वावलंबी, निरोगी, स्वाभिमानी और समृद्ध था. आचार्य चाणक्य जी ने कहा – धर्मम् मूलम् अर्थम् , अर्थम् मूलम धर्मम. अर्थात धर्म के मूल में अर्थ (संपत्ति) है और अर्थ के मूल में भी धर्म है. दोनों एक दूसरे के पूरक है.
धर्म हमें सृजन सिखलाता है. भारत वर्ष धार्मिक था इसीलिए समृद्ध था. तीन प्रश्न हैं. 1) अब हमें यह जानना होगा की सुखी भारत में किस प्रकार की बाजार व्यवस्थता थी ? 2) अंगरेजों ने किस कारन से भारतीये बाजार व्यवस्थता को तोडा ? और 3) आज किस प्रकार की बाजार व्यवस्थता है ? इन तीनों का उत्तर खोजना होगा ? और उनके समाधान में ही समृद्ध भारत के पुन:निर्माण का रास्ता निकलेगा. इसे मैनें जितना समझा है उसे भारत के युवाओं के समक्ष रखने का प्रयास है.
सुखी भारत के प्रत्येक गाँव में सप्ताह में एक दिन अथवा 2 दिन हाट लगते थे. उस हाट में उस गाँव के सभी उत्पादन कर्ता अपना – अपना माल गाँव के चोराहे पर लाकर मेला जैसा लगते और मुख्य रूप से उसी गाँव के लोग अपनी जरुरत की वस्तु को खरीदते. बेचनेवाला और खरीदने वाला एक दुसरे को पहचानते. अत: माल की गारंटी स्वत: हो जाती. यहाँ पर खरीदने और बेचने के लिए कोई राजा कर लगते कोई नहीं भी लगाते. ज्यादातर राजा नहीं लगाते. जो लगाते, वे भी इतना ही “कर” लगाते जितना एक फूल से मधुमक्खी रस चूसता है. इससे फूल का कुछ भी नहीं बिगड़ता है और मधुमक्खी का पेट भी भर जाता था. ध्यान देने की बात है की यहाँ पर उत्पादन “कर” नहीं लगता था.
राजा की तरफ से सुविधा यह होती थी की कोई गुंडाकर नहीं वसूले. खरीद और बिक्री के स्थान की सफाई और कुछ जरुरी व्यवस्थता होती थी. हाट दिन में ही लगते, इसलिए बिजली की भी कोई जरुरत नहीं थी. माल के विज्ञापन की भी जरुरत नहीं थी क्योंकि कोई उत्पादक झूठ बोले, इसकी गुंजाईश ही नहीं थी. कई राजा सुविधा यह देते थे की जो माल साम तक नहीं बिका उसे राजा अपने राजकोष से खरीदकर उत्पादक का उत्साह बढ़ते. जिससे राज क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ती.
शहरों की संख्या कम थी, जहाँ पर सातों दिन हाट लगा रहता था. यहाँ बड़े उत्पादकों की दूकानें होती थी और व्यापारी होते थे जो उत्पादकों से माल खरीदते और ग्राहकों को बेचने के कार्य में लगे होते. इनसे भी मामूली “कर” वसूला जाता था. उत्पादक और ग्राहक नजदीक होने से यातायात का खर्च बचता था. नजदीक के यातायात बैलगाड़ियों से हो जाया करते थे.
अंगरेजों ने इस व्यवस्थता को तोडा क्योंकि उन्हें अधिक “कर” वसूलना था. अर्थात भारत के उत्पादकों को लूटना था. उन्होंने सुविधाओं को बंद किया. बचा हुआ माल खरीदना बंद किया. कारन भारत से कच्चा माल ब्रिटेन जाना और फिर वहां से तैयार होकर भारत के बाजार में बेचना उनकी नियति थी. इस कारन बाजार को केन्द्रित किया. केन्द्रित बाजार में यातायात का बड़ा खर्च आता है. डीजल और पेट्रोल का खर्च बढ़ता है. जिसे सरकार खरीदती है और उस पर भी “कर” लगाकर बेचती है. अर्थात दोहरी “कर” का भार. इसी प्रकार “तिहरीकर” “चोथीकर” ……. डालते गए. अंतत: “करों” की संख्या बढ़ते-बढ़ते दो दर्जन से भी अधिक हो गए. माल की कीमत तीन – चार गुना बढ़ गई.
अंगरेजों के बाद के भारत में क्या हुआ? अंगरेजों द्वारा लागू किये गए कर व्यवस्थता को और आगे बढाया गया. बढ़ते – बढ़ते आज 64 की संख्या पर आ गया है. परिणाम आज कोई वस्तु 10 रुपये में बनती है तो वह बाजार में कई गुना अधिक मूल्य में बिकती है. बाजार को केन्द्रित कर दिया गया जिससे कभी – कभी तो उत्पादन मूल्य से अधिक यातायात पर खर्च हो जाता है. एक उदहारण – मेरे गाँव में सब्जी की खेती होती है – किसान सब्जी को 70 किलोमीटर दूर माम्बलम की सब्जी मंडी में अपना माल बेचते हैं. वही सब्जी फिर से हमारे गाँव में आकर बिकती है. जिस पर 2 बार यातायात का खर्च और मंदी का चुंगी लगता है. किसान 10 रुपये किलो सब्जी मंडी में बेचा. वह सब्जी ग्राहक तक पहुंचाते – पहुंचाते 60 रुपये किलो तक हो जाता है. इसमें किसान भी मारा गया और ग्राहक भी मारा गया. फायदा किसको हुआ? सरकारी ब्यवस्थता चलाने वालों का. सरकार को भारी कर मिला. यह तो अंगरेजों द्वारा खडी की गयी लूट वाली व्यवस्तता थी. अब भी हमारी सरकार क्यों चला रही है ? चला ही नहीं, बढ़ा भी रही है.
अब यहाँ “धर्मम् मूलम् अर्थम्, अर्थम् मूलम् धर्मम्” को भी समझ लेनी चाहिए. जब वाणिज्य धर्म आधारित होता है तब उसमें ईमानदारी आती है, उत्पादन में गुणवत्ता आती है. वयापार में मन केन्द्रित होता है. इन सभी से व्यापार बढ़ता है. जब व्यापार बढ़ता है तब धन आता है. धन का सही – सही खर्च हो इसलिए धर्म को साथ में रखना होता है. अंगरेजों में धर्म और अर्थ को अलग – अलग किया. जिससे वाणिज्य भी गया और धर्म का भी नाश हुआ. वह तो अंगरेजों की लूट निति थी, अब भी हमारी सरकारें उसी रस्ते पर क्यों चल रही हैं ?
“गव्यहाट” स्थानीय उत्पादकों के माल को स्थानीय ग्राहकों तक पहुँचाने की आधुनिक व्यवस्थता है. जुड़िये ! स्वावलंबी, स्वाभिमानी और समृद्ध भारत बनाइये. प्रजा सुखी हुई तो राष्ट्र स्वयं सुखी हो जायेगा. यही है स्वर्णिम भारत के पुन:निर्माण का मूल मन्त्र.