किसी भी देश की बैंकीय व्यवस्था सबसे बड़ा आर्थिक धोखा है यह बात अर्थशास्त्रियों को भली भांति पता है लेकिन पश्चिम का अर्थशास्त्र ऐसा ही है। यह उसकी नियती है क्योंकि पश्चिम की सामाजिक व्यवस्था से निकला उनका अर्थशास्त्र भी लूट की नियत पर ही खड़ा हुआ है। ऐसे में उससे निकला हुआ बैंकीय व्यवस्था ईमानदारी पर चलकर कैसे मुनाफे की डगर तय कर सकता है ?
जब से भारत सरकार ने विदेशी बैंकों के लिए दरवाजा खोला है तभी से भारतीय बैंकों की हालत पतली होने लगी है और स्थिति यहां तक आ चुकी है कि भारतीय बैंकों को अपनी शाख बचाने के लिए उनके पास कोई रास्ता नहीं है। रिजर्व बैंक के पास अपनी जमा पूंजी नहीं है। इस कारण सरकार उन्हें भारत की जनता के पैसे बांटेगी ताकि बैंकों की इज्जत बच सके।
आज के दौर में बैंक भी एक व्यवसाय है। वह डुबे ; तो सरकार उबारे। क्या ऐसी व्यवस्था दूसरे व्यवसायियों के लिए सरकार करती है ? आज जितना पैसा सरकार भारतीय बैंकों को फोकट में दे रही है इतना धन किसी दूसरे व्यवसाय के लिए सरकार ने फोकट में कभी भी नहीं दिया। यह सब इसलिए हुआ है कि भारत की सरकार ने गैट करार के अंतर्गत विदेशी बैंकों बसाया और धंधा करने की खुली छूट दे डाली।
स्थिति कितनी भयावह है इस संबंध में विश्लेषक निरंकार सिंह लिखते हैं कि सरकारी बैंकों को खतरे से उबारने के लिए सरकार ने एक बार फिर अपना खजाना खोल दिया है। अगले चार वर्षों में उन्हें सत्तर हजार करोड़ रुपए मिलेंगे। पिछले पांच वर्षों में सरकार बैंकों को चौंसठ हजार करोड़ रुपए पहले ही दे चुकी है। फंसे हुए कर्जों में बढ़ोतरी और लगातार घटते मुनाफे के कारण सरकारी बैंक खतरे में चल रहे हैं। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने २०१५-१६ का आम बजट पेश करते हुए कहा था कि सरकारी बैंकों को दो लाख चालीस हजार करोड़ रुपए की जरूरत है।
भारतीय बैंक खुद कर्ज के जाल में फंसे हुए हैं, फिर उनके फंसे हुए कर्जों में छियासी फीसद वृद्धि हुई है। कभी वित्तीय बाजार को अपनी अंगुली पर नचाने वाले बैंक आज पूंजी के लिए बीमा और म्युचुअल फंड कंपनियों से कर्ज ले रही है। यह एक नए तरह का (लिक्विडिटी डेफिसिट) संकट है।
बैंकों को संकट से उबारने के लिए सरकार ने सात स्तरीय इंद्रधनुष रणनीति बनाई है। इसके अंतर्गत बैंकों की पूंजी संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए आर्थिक सहायता देने के साथ-साथ उनके कामकाज पर निगरानी के लिए बैंक बोर्ड ब्यूरो के गठन का भी प्रस्ताव है। अपै्रल २०१६ से बैंक बोर्ड ब्यूरो अपना कामकाज शुरू करेगा। इसका उद्देश्य सरकारी बैंकों को सक्षम और उन्हें निजी बैंकों के बराबर या उनसे बेहतर बनाना है। सरकार की यह नीति क्या गुल खिलाएगी यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा फिलहाल हम इतना ही कह सकते हैं कि यह भी पश्चिम की नीति का ही हिस्सा है और इसमें से ज्यादा कुछ मुनाफा नहीं निकल सकता। बैंवेंâ में और भी संकट बढ़ेगा। अंतत: सभी बैंके रिजर्व बैंक की प्रेंâचायजी जैसी हो जाएगी।
कृषि और लघु तथा मध्यम उद्योग के क्षेत्र में अच्छा काम करने वाले कुछ बैंक स्थानीय क्षेत्र के अच्छे खिलाड़ी बन सकते हैं। इस सच को सरकार को स्वीकारना पड़ेगा। लेकिन इसके उल्टे वित्तीय सेवाओं के सचिव हंसमुख अधिया कहते हैं कि सरकारी बैंकों के एकीकरण का समय आ गया है और अगर प्रस्तावित बैंक बोर्ड ब्यूरो इन बैंकों को अपने स्तर से कदम उठाने को राजी नहीं कर सका, तो सरकार को दखल देना पड़ सकता है। इसका मतलब है कि कुछ सरकारी बैंकों का विलय भी किया जा सकता है।
‘‘फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट’’ कहती है कि बैंकों का कर्ज और एनपीए का अनुपात खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि आने वाली कुछ तिमाहियों में एनपीए की स्थिति और बिगड़ सकती है। इस वजह से बैंकों को अपने मुनाफे से ज्यादा राशि का प्रावधान फंसे कर्जों के नुकसान की भरपाई के लिए करना पड़ सकता है।
ऐसे भी सभी बैंकों के एनपीए का स्तर ठीक नहीं है, लेकिन सरकारी बैंकों की स्थिति ज्यादा खराब हुई है। ताजा आंकड़ों के अनुसार बीते वित्तवर्ष के दौरान सभी सरकारी बैंकों का सकल एनपीए दो लाख पचपन हजार एक सौ अस्सी करोड़ रुपए था। जो कि कुल अग्रिम का ५.२० फीसद है।
अभी – अभी सरकारी बैंकों के तिमाही के वित्तीय नतीजों को देखें तो देश के दूसरे सबसे बड़े सरकारी बैंक पीएनबी का शुद्ध लाभ उनचास फीसद घट कर सात सौ इक्कीस करोड़ रुपए रह गया है। यही हाल बैंक ऑफ इंडिया का भी है। पिछली तिमाही में इसका मुनाफा चौरासी फीसद घट कर १२९.७२ करोड़ रुपए रह गया। इसी तरह सिंडिकेट बैंक का शुद्ध लाभ बत्तीस फीसद कम होकर तीन सौ दो करोड़ रुपए रहा। यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का मुनाफा भी बाईस फीसद घट कर पांच सौ उन्नीस करोड़ रुपए हो गया।
भारत का वित्तीय तंत्र (बैंक, बीमा, म्युचुअल फंड, शेयर बाजार) आपस में गहराई से जुड़ चुका है। यह अच्छा बदलाव है, लेकिन जब बैंकों में प्रतिदिन की पूंजी की कमी हो, तब इसे जोखिम भरा समय कहते हैं। फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट मानती है कि भारत के बैंक अगर किसी मुश्किल में फंसते हैं, तो पूरा तंत्र लड़खड़ा जाएगा और अगर बैंकों को कर्ज देने वाली बीमा और म्युचुअल फंड कंपनियां टूटीं तो भी पूरे तंत्र में दरारें आएंगी।
इस दिशा में एक और घोर संकट है। यूपीए सरकार के दबाव में पिछले कुछ वर्षों के दौरान सरकारी बैंकों ने बिजली कंपनियों को दिल खोल कर कर्ज दिया है, लेकिन अब इनसे कर्ज वसूलना मुश्किल हो गया है। इस समय देश की विभिन््ना बिजली परियोजनाओं में बैंकों के लगभग तीन लाख करोड़ रुपए फंसे हुए हैं।
बैंक ऑफ बड़ौदा, देना बैंक और यूको बैंक को छोड़ कर अन्य सभी बैंकों के लिए बिजली परियोजनाओं से कर्ज वसूलना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। ऐसे में कई बैंकों के फंसे कर्जे (एनपीए) में भारी वृद्धि का खतरा है। रिजर्व बैंक ने भी पिछले हफ्ते वार्षिक स्थायित्व रिपोर्ट में इस खतरे को लेकर चेतावनी दी थी।
यदि हमारी बैंकिंग व्यवस्था लड़खड़ाई, तो अर्थव्यवस्था को लड़खड़ाते देर नहीं लगेगी। अमेरिका में बैंकिंग व्यवस्था के लड़खड़ाने से उसे भीषण मंदी के दौर से गुजरना पड़ा, जिसका असर पूरी दुनिया पर पड़ा था। भारत में भी १९४७ से लेकर १९५५ तक हर साल चालीस बैंक दिवालिया हुए और १९६७ तक सिर्फ इक्यानबे बैंक बचे रहे। भारत सरकार ने इन बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके इन्हें सरकारी बैंक में बदल दिया। १९९१ से २००१ के बीच बाईस निजी बैंकों को लाइसेंस बांटे गए, पर इनमें से सिर्फ चार बैंक मजबूती से टिक पाए। ऐसे में हमें देखना होगा कि पश्चिम का यह बैंकीय ढांचा कहीं न कहीं हमें आर्थिक संकट में पंâसा दे इससे पहले को राष्ट्रीय नीति के तहत स्थाई हल निकल सके।.
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