‘मेक इन इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी और डिजिटल इंडिया’ में कहां है स्वदेशी भाव ? आज-कल भारत के प्रत्येक नुक्कड़ पर चीन ही चीन दिखलाई देता है। चीनी नूडल्स का तो क्या कहना, अब तो देशी के ऊपर सर चढ़कर बोल रहा है। हिन्दी में शक्कर को चीनी कहते हैं। इतना ही नहीं बिमारी में चीनी का भी बड़ा बोल-बाल है। चीनिया केला और चीनिया बादाम (मूंगफली) भी उत्तर भारत में मिलते ही है।
राजपथ पर मोदी सरकार ने जोर-शोर से योग दिवस मनाने का एलान किया था तो पता चला कि चीन में बनी चटाइयों पर ही भारतीय शीर्षासन किए। दिवाली पर नियोन लाइट में चमचमाती लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा खरीद लाए और होली में रंगों की फुहार भी चीनी पिचकारी से कर रहे हैं। हमारी खाने की थाली से लेकर तीज-त्योहार में चीन का बाजार घुसा पड़ा है। वहीं चीन में भी एक छोटा सा भारत है और पीकिंग विश्वविद्यालय में मीरा, सीता और राम रामचरितमानस और रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाएं पढ़ रहे हैं।
भारतीय विदेश मंत्रालय से मिली सूचना के अनुसार बेजिंग में महज सात या आठ सौ भारतीय ही होंगे जबकि शंघाई में इनका आंकड़ा १० हजार की संख्या को छूता है। चीन में सबसे ज्यादा भारतीय चीन की भव्यता के प्रतीक शहर क्वांग चो में ही हैं। विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी के अनुसार, ‘क्वांग चो नया बना शहर है और चीन के अत्याधुनिक उद्योग व व्यवसाय का आलीशान केंद्र है। यहां भारतीयों की संख्या २० हजार से भी ज्यादा है और इनमें से बहुत से बड़ी-बड़ी कंपनियों के शीर्ष स्तर पर कार्यरत हैं’। चीन में रहने का सीधा फार्मूला यही है कि आपको चीनी भाषा का ज्ञान हो। वरना कई बार सामान्य चीनी के बोलने के कर्कश अंदाज से आप भ्रमित हो जाते हैं कि वह गुस्सा कर रहा है या लड़ना चाहता है।
चीन में महिलाओं की मौजूदगी मुखर है। यहां कई संवेदनशील कार्यों में महिलाएं अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं। बेजिंग हवाई अड्डे के अति महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के लाउंज का समूचा प्रबंधन व सुरक्षा महिलाओं के जिम्मे है। राष्ट्रपति को सलामी देने वाली सेना की तीनों टुकड़ियों में महिलाओं ने बराबरी से शिरकत की और इसके बाद सबकी अगवानी में भी महिलाएं आगे रहती हैं। यहां किसी के भी विकास व तरक्की में भाषा बड़ी बाधा हो सकती है। इसलिए सभी लोगों को भी पहले भाषा सीखने में दक्ष होना पड़ता है। फिर सब कुछ आसान हो जाता है। विदेशियों के रास्ते में भाषा आड़े न आए, इसके लिए आपको उपकरण प्रदान किए जाते हैं जो उच्चारण के साथ-साथ ही अंग्रेजी अनुवाद पेश करते जाते हैं। भाषा के प्रति चीनियों के आग्रह की प्रशंसा और आलोचना दोनों होती है। लेकिन अगर भारतेंदु हरिश्चंद्र की सीख याद करें, ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’ तो शायद हमें चीन से यह सीख लेनी होगी कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान उन्नति के तहत बतौर भाषा हिंदी को दुनिया की भाषा के समांतर खड़ा करने की कोशिश भी होनी चाहिए।
भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी चीन के दौरे पर गए। उनसे सवाल किया गया कि लंबे अर्से तक सार्वजनिक क्षेत्र में जिम्मेदारी निभाते हुए भी बोलने का बंगाली अंदाज आपसे जुदा नहीं हो पाया है तो प्रणब दा ने बड़ी संजीदगी से मुस्कुराते हुए कहा, ‘मुझे अपने बंगाली अंदाज पर नाज है और मैंने कभी इसे बदलना नहीं चाहा’। वैश्विक मंच पर प्रणब ने बंगाली भाषा को लेकर जो आदर और सम्मान दिखाया, वह भारतीय भाषाओं को लेकर देश में अनुकरणीय हो तभी ‘मेक इन इंडिया’, ‘मेड इन चाइना’ को मात दे पाएगा।
एक प्रश्न उङ्गा कि ‘चीन के साथ भारत के संबंध थोड़े जटिल हैं। चीन के साथ हमारी दोस्ती भी है और दुश्मनी भी। दो देश जिनकी सीमाएं आपस में जुड़ती हैं, के बीच दुश्मनी का भाव सहज ही है। लेकिन सच यह है कि हमें इसी दोस्ती और दुश्मनी के बीच में से अपना रास्ता निकालना है क्योंकि विश्व के आर्थिक पटल पर जिस तेजी से चीन ने अपनी जगह बनाई है उसके कारण इससे अलग होना उतना भी आसान नहीं’। शायद इसलिए जब राष्ट्रपति से पूछा गया कि क्या किन्हीं विशेष मुद्दों या व्यक्ति पर बात हुई तो उनका जवाब दो टूक था कि इस स्तर पर बातचीत व्यक्तिगत नहीं होती। शायद इसलिए राष्ट्रपति ने चीन को भी ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी और डिजिटल इंडिया’ जैसी मोदी सरकार की योजनाओं में भाग लेने का बुलावा दिया। हालांकि यह भी सच है कि ‘मेक इन इंडिया’ को ‘मेड इन चाइना’ के जवाब के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन चीन ने इसमें अपनी भागीदारी को लेकर सकारात्मक संकेत देकर ही भेजा। यह कितना सफल होगा यह देखने की बात है।