चेन्नै। भारत की ६५ फिसदी ग्रामीण जनसंख्या को जरुरी और आपात चिकित्सा उपलब्ध कराने की दिशा में जिस नर्स प्रैक्टिशनर के कोर्स को केंद्र सरकार ने विगत अप्रैल २०१५ में मंजूरी दी थी लेकिन इसे इंडियन मेडिकल काउंसिल (सरकार नियंत्रित संगङ्गन) ने नकार दिया है। प्रश्न उङ्गता है कि क्या इंडियन मेडिकल काउंसिल की सोच केवल शहर केंद्रित है? जहां से चिकित्सा के लिए पैसे उगाहे जाते हैं। ऐसा नहीं है डॉक्टरों को ग्रामीण क्षेत्रों में ड्यूटी करने के लिए प्रेरित करने को लेकर काउंसिल क्या कर रही है? इस प्रश्न का उत्तर काउंसिल कभी नहीं देता। ऐसा भी नहीं कि काउंसिल के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं। वह कह सकती है कि ग्रामीण जनसंख्या को इलाज दिलाने के लिए डॉक्टरों को सलाह देती रहती है। पर सवाल यह है कि कोर्स पूरा होने के बाद प्रोफेशनल शपथ लेने वाले डॉक्टर फिर भी गांवों में जाना पसंद क्यों नहीं कर रहे हैं। इसी विषय से निराश होकर केन्द्र ने तय किया था कि पंजिकृत नर्स जो ग्रामीण क्षेत्रों में ड्यूटी पर तैनात हैं, जिन्हें चिकित्सा के मर्म की जानकारी है उन्हें पंजीकृत डॉक्टरों की श्रेणी में रखकर ग्रामीण क्षेत्र में चिकित्सा का उत्तरदायित्व दिया जाए। लेकिन केन्द्र सरकार के इस निर्णय को काउंसिल से सिरे से खारिज कर दिया है।
भारत वैसे ही विकसित देशों की तुलना में डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है। देश की कुल जनसंख्या करीब १२५ करोड़ है। पर २०१३ के आंकड़ों के मुताबिक, यहां रजिस्टर्ड डॉक्टरों की संख्या मात्र ९ लाख १८ हजार ही है। इनमें से भी पर मात्र साढ़े छह लाख डॉक्टरों की ही सेवा देश की आबादी को प्राप्त हो रही है। इसका सहज गणित लगाया जाए तो भारत में १,२१७ लोगों पर एक डॉक्टर है। पर गांवों की स्थिति यह है कि डॉक्टर वहां जाना ही नहीं चाहते। विकसित देशों के न्यूनतम आंकड़ों के मुताबिक देश में करीब ४ लाख डॉक्टरों की कमी है। डॉक्टरों की जरूरत शहरी क्षेत्रों में भी है। इसकी वजह हर साल हजारों डॉक्टरों का विदेश पलायन भी कर रहे हैं।
कुछ अंतर्राष्ट्रीय आंकड़े वहां की स्थितियों के अनुसार देखें तो ऐसी स्थिति अमरीका में १९६० के आस-पास थी। तब वहां चिकित्सा के लिए नर्स प्रैक्टिशनर की शुरुआत की गई थी। देहाती क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी देखते हुए अपने यहां भी नर्स प्रैक्टिशनर कोर्स को मंजूरी दी गई, ताकि नए तरीके से प्रशिक्षित नर्सें सेवा करने के साथ छोटे-मोटे रोगों का इलाज और ऑपरेशन भी कर सकें। यूरोप के कई देशों और ऑस्ट्रेलिया में भी नर्स प्रैक्टिशनर जन स्वास्थ्य की दिशा में सेवा दे रहे हैं। अपने यहां सालाना दो लाख से ज्यादा नर्सें प्रशिक्षित होकर निकलती तो हैं, पर उनमें से ज्यादातर बेहतर वेतन और रोजगार के चलते विदेश चली जाती हैं। जिस कारण देश में नर्स की लगातार कमी बनी रही है। केन्द्र सरकार द्वारा नर्स प्रैक्टिशनर कोर्स शुरू होने से इस कमी पर काबू पाया जा सकता था।
दस वर्ष पूर्व इसी तरह रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनरों पर रोक लगाई गई थी और उन्हें झोलाछाप बताकर प्रतिबंधित किया गया। उन दिनों भी रोक लगवाने में इंडियन मेडिकल काउंसिल की ही भूमिका रही थी। अब भी पुलिस और दूसरी संस्थाएं ग्रामीण और गरीब इलाकों में काम कर रहे सस्ते-सुलभ डॉक्टरों के खिलाफ झोलाछाप के नाम पर बुरी कार्रवाई की थी। ऐसे कुछ मामलों में मरीजों की हालत खराब हुई थी या फिर मौतें भी हुई हैं। पर ऐसी असावधानियां और मरीजों के पेट में तौलिया और कैंची छोड़ने की घटनाएं तो बड़े अस्पतालों में भी हुई हैं। आज भी हो रही है। कुछ आलोचक तो यहां तक बात करते हैं कि बड़े अस्पताल मृत्यु प्रमाण पत्र देने को लेकर ही चल भी रहे हैं। वहां भी सावधानियों की कमी और गलत दवाओं से बहुत दुष्परिणाम हो रहे हैं। जरुरी नहीं होने पर भी पैसे के लालच में आपरेशन के चक्कर में रोगियों को डाल रहे हैं। जिससे रोगियों जीवन भर के लिए नुकसान उङ्गाना पड़ता है।
रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए आज भी वरदान हैं। वे अब भी वहां चिकित्सा के प्राथमिक स्रोत बने हुए हैं। इसी प्रकार ग्रामीण आबादी के लिए प्रैक्टिशनर नर्स भी इलाज का अच्छा विकल्प हो सकती है। इसलिए बेहतर होगा कि मेडिकल काउंसिल के ऐतराज को ताख पर रखकर सरकार देश की करीब पैंसठ फीसदी ग्रामीण आबादी को सहज इलाज मुहैया कराने के लिए इन प्रैक्टिशनर्स की व्यवस्था को लागू करे। आज भारत को इसकी बहुत जरुरत है।.