सरकारी सभी बैंक अपनी करनी से नुकसान में चलते हैं। फिर दुहाई दी जाती है की साथ मे समाज सेवा भी कर रहे हैं। प्रश्न उठता है की सरकारी बैंक ने आज तक कौन सी समाज सेवा कर दिखाई है? केवल इस बात को छोड़ कर की वे इस तर्ज पर कार्य करते रहे हैं कि – “जहां न जाए निजी बैंक वहाँ खुल जाते हैं सरकारी बैंक”। लेकिन बैंक के कर्मचारी वहाँ भी कम पढे – लिखे ग्रामीणों के शोषण के अघोषित अधिकार को नहीं छोड़ते हैं। 50 रुपये से लेकर हजारों का कमीशन खाने कि लत नहीं छूटती।
ऐसे में सरकार जनता के पैसों को बैंक परिचालन के लिए दे देती है, यह कहाँ का न्याय है? सरकार बैंकों को ठीक क्यों नहीं करती? अभी जो स्थिति सामने आई है यह बड़ी भयावह है। इसमें लोगों के खरबों रुपये डूब सकते हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया कि भी हालत बहुत खराब है। आज खड़ा हुआ निजी बैंक कोटक महिंद्रा बैंक उससे आगे निकल गया है। इसके कुछ बानगियाँ देख सकते हैं –
1) 17 अप्रैल, 2018 को बंद हुए शेयर बाजार के हिसाब से पूरे स्टेट बैंक को करीब दो लाख 21 हजार करोड़ रुपये में खरीदा जा सकता था, जबकि कोटक महिंद्रा बैंक को खरीदने के लिए इससे ज्यादा यानी दो लाख 22 हजार करोड़ रुपये की जरूरत होगी।
2) एचडीएफसी बैंक खरीदने के लिए बाजार में करीब पांच लाख सात हजार करोड़ रुपये चाहिए। अर्थात एचडीएफसी बैंक की कीमत में दो स्टेट बैंक खरीदे जा सकते हैं, फिर भी कुछ रकम बची रह जायेगी।
वहीं कोटक महिंद्रा बैंक के शेयर के भाव करीब 33 प्रतिशत बढ़े हैं जबकि स्टेट बैंक के भाव 14 प्रतिशत गिरे हैं। और भी कई सवाल हैं – बड़े घोटालों की खबरें सरकारी बैंकों से आ रही हैं। पंजाब नेशनल बैंक से नीरव मोदी घोटाले में करीब 12,000 करोड़ रुपये गायब हुए।
सरकारी बैंक अपनी करनी से तबाह हुए जा रहे हैं वहीं निजी बैंक लगातार फल-फूल रहे हैं। कल का खड़ा एचडीएफसी बैंक हैसियत में स्टेट बैंक के दोगुने से भी ज्यादा हो गया। कोटक महिंद्रा हैसियत में स्टेट बैंक से आगे निकल गया है।
आज नहीं तो कल इन प्रश्नों के उत्तर खोजने पड़ेंगे। इसी से भारत की वित्तीय व्यवस्था जुड़ी है। भारत की वित्तीय व्यवस्था बहुत तेजी से बदल रही है। आज अभी – अभी शुरू किए गए इलेक्ट्रानिक वालेट पेटीएम की ग्राहक संख्या करीब तीस करोड़ पहुँच गयी है। पेटीएम कल कामर्शियल बैंक बन जाएगा। इस परिवर्तन का सबसे पहले निशाना बनेंगे सरकारी बैंक।
अभी बैंकिंग में 70 प्रतिशत कारोबार सरकारी बैंकों के पास है और 30 प्रतिशत कारोबार निजी बैंकों के पास। अगले पांच सालों में निजी बैंकों के पास करीब पचास प्रतिशत कारोबार हो जायेगा। इन आंकड़ों के गहरे निहितार्थ हैं। नयी पीढ़ी सरकारी बैंकों के साथ कारोबार करने में इच्छुक नहीं है। खास कर उच्च शिक्षित प्रोफेशनल निजी बैंकों के साथ कारोबार करने में ज्यादा आसानी महसूस करते हैं। निजी बैंक उनकी जरूरतों के हिसाब बैंकिंग उत्पाद – व्यवस्था बनाकर उनके लिए पेश करते हैं और इसकी अच्छी खासी फीस वसूलते हैं। इस तरह से उनके मुनाफे लगातार बेहतर होते जाते हैं।
बैंकों पर देश के कम संपन्न तबकों की सेवा का दायित्व है, जिसे भी वे संतुष्ट नहीं कर प रहे हैं। निजी बैंक इससे मुक्त हैं। वे अपने ग्राहकों का चुनाव खुद कर सकते हैं। सरकारी बैंकों का मालिक सरकार हैं। तो सरकार से जुड़े कई नेता सरकारी बैंकों के निदेशक मंडल में होते हैं। इनका उद्देश्य बैंकों की बढ़ोत्तरी नहीं बल्कि अपने राजनीतिक हितों के संवर्धन में होता है।
यानी बैंक होते तो वित्तीय संगठन हैं पर कई बार चलते हैं राजनीतिक हितों के आधार पर। सरकारी बैंकों के जो कर्ज डूबे हैं, उनके पीछे कहीं न कहीं राजनीतिक संरक्षण रहा है। एक उदाहरण देखें – विजय माल्या खुद राज्य सभा के सांसद थे और लगभग हर बड़े राजनीतिक दल में उनकी सांठगांठ थी।
बीएसएनएल और एमटीएनएल की तरह, जिनकी महत्ता निजी क्षेत्र के आने के बाद लगातार कम हुई। इसी लिए यह मांग कि जा रही है कि घाटे में चल रहे बैंकों को निजीकृत कर दिया जाये। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि – निजी क्षेत्र के बैंकों ने तकनीक को बहुत तेजी से आत्मसात किया है।
अर्थात आगामी दस सालों में अगर सरकारी बैंक कुल बैकिंग के दस प्रतिशत के स्तर पर आ जायेंगे, तो फिर आबादी के बड़े हिस्से के पास विकल्प बचेगा ही नहीं। इसलिए सरकारी बैंकों को निजीकृत किये बगैर और किस तरह से बेहतर बनाया जा सकता है, इस पर सोचा जाना चाहिए। बैंक निजीकरण से मुनाफा कमाया जा सकता है, पर देश में सरकारी बैंकों को सिर्फ मुनाफा कमाने का ही लक्ष्य नहीं दिया जाता, उनसे आशा की जाती है कि वे समाज सेवा भी करेंगे।