“यथा राजा तथा प्रजा” “धार्यति इति धर्म:”, “काम” को समझें
गव्यसिद्ध डॉ विशाल गुप्ता
महर्षि वाग्भट्ट के सूत्र की जिस कार्य को करने से धर्म, अर्थ और काम की पूर्ति हो, मनुष्य को उस मार्ग पर चलकर मोक्ष रूपी अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए यही मानव जीवन का विकास है और जिस कार्य से इनमें से किसी एक कि भी हानि हो उसे कदापि नहीं करना चाहिए। पिछली कड़ी में धर्म को समझने का प्रयास करते हुए आज अर्थ और काम को समझते हुए इस कड़ी को आगे बढ़ाते हैं।
कलयुग में अर्थ अर्थात पैसा ही सब कुछ है। किंतु अर्थ सिर्फ पैसा नहीं है। अगर हम अर्थ के सच्चे मायने समझ लें तो कल युग में भी सुख- शांति से जीवन यापन किया जा सकता है।
अर्थ वो संपदा है जो जीवन में सुख शांति लेकर आये, या ये कहें कि जिस धन से जीवन में सुख शांति का संचार हो वो ही सच्चा अर्थ है। किन्तु आज हमने भौतिकवादी संसाधनों को एकत्रित करना ही जीवन का लक्ष्य मान लिया है। जबकि धर्म अनुसार आचरण करते हुए अर्थ का संचय करना सुखी जीवन की कुंजी है।
उदाहरण के रूप में समझें अगर कोई सरकारी अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त होकर अर्थ की कामना करता है तो वह व्यक्ति दिन – रात अपनी चोरी पकड़े जाने के भय में रहेगा। और महर्षि वाग्भट्ट कहते हैं जो व्यक्ति भय में रहता है उसकी वृक्क अर्थात किडनी बहुत जल्दी खराब हो जाएंगी। किडनी खराब हुई तो पूरे शरीर पर सूजन आ जायेगी और उस सूजन को उतरवाने के लिए डायलिसिस करना होगा। ऐसी परिस्थिति में कमाया हुआ धन गई गुना गति से व्यय होकर नष्ट हो जाएगा। शरीर और धन का अपव्यय होने से सुख शांति चले जायेंगे। तो भ्रष्टाचार रूपी अधर्म का पालन करके कमाया गया अर्थ अनर्थ हो जाएगा।
इसलिए वाग्भट्ट जी कहते हैं अगर धर्म, अर्थ, काम में से किसी एक कि भी हानि हो तो उस मार्ग पर कदापि नहीं चलना। उपरोक्त उदाहरण में अर्थ प्राप्ति में धर्म अर्थात ईमानदारी का नाश होता है इसलिए वह मार्ग का तिरस्कार कर दो।
जबसे हमने अपने मूल कार्य कृषिकर्म, ज्ञाति कर्म (ज्ञान आधारित कर्म जैसे – कुम्हारी, लुहारी, जुलाहा, सुनाहरी आदि) को छोड़कर अन्य कार्य किए तबसे जीवन की सुख शांति ही समाप्त हो गयी।
कृषक अब प्रॉपर्टी डीलर बनकर पूर्वजों की बनाई संपदा को बेचकर करोड़ों कमा तो लेता है किंतु आलीशान बंगले, बड़ीगाड़ी में उस अर्थ का अपव्यय करके कुछ सालों में ही दरिद्र बन जाता है। पीढ़ियों तक अपनी भूमि का मालिक, राजा की तरह जीने वाला अगली पीढ़ी के लिए कुछ नहीं छोड़ता और अगली पीढ़ी दरिद्र सिक्योरिटी गार्ड की घटिया नौकरी करके जीवन का आनंद ही खो बैठती है।
उदाहरण के रूप में देखें तो चेंगलपट्टु और ताम्ब्रम के बीच शहर बसने से पहले एक – एक किसान कई सौ बीघे भूमि का मालिक होकर शान से अर्थ उपार्जित करता था और उस अर्थ से काम अर्थात उद्देश्यपूर्ण कर्मों में उस धन को लगाकर जीवन का उपभोग करता था किंतु केवल दस सालों में ही भूमि बेचकर करोड़ों रुपये स्वाहा हो गए। आज उन्ही राजाओं (किसानों) के बच्चे वहां लगी कंपनियों में आठ – नौ हजार की नौकरी करके दस – दस घंटे खराब करते हैं। और मेहनत करने वाले हाथ जब इतने घंटे खाली रहते हैं तो बाकी समय गुंडागर्दी और बदमाशी करते हैं।
अर्थात धर्म रूपी भूमि को बेचकर कमाया गया अर्थ कुछ ही समय में अनर्थ हो जाता है।
इस अधर्म को फैलाने में सबसे बड़ा हाथ राजतंत्र अर्थात सरकारों का रहा है। “यथा राजा तथा प्रजा” अर्थात जैसा राजा होगा वैसी ही प्रजा होगी। आज के राजा अपने देश की संपत्ति (अर्थ) अर्थात भूमि, नदियां, पर्वत, वन, सभी चीजों को विदेशियों को बेचने में लगे हैं। धननंद के समान गरीब जनता से कर वसूली करके बिना मतलब के कार्यों में अपव्यय कर रहे हैं। इसी कारण अधार्मिक कार्यों से आये अर्थ से प्रजा लोभी, भ्रष्टाचारी, प्रमादी और कामुक हो गयी है और उपरोक्त कारणों से देश में अराजकता और बीमारियों का प्रकोप दिनों – दिन बढ़ रहा है।
आज वन संपदा को काटकर बड़े पैमाने पर बेचा जा रहा है, गांवों को तबाह करके शहर बनाये जा रहे हैं। वन कटने से भयंकर जलवायु परिवर्तन हो रहा है, ठंड में ठंड नहीं पड़ती और बिन मौसम वर्षा होने से फसलें तबाह हो रही हैं। गांव समाप्त हो रहे हैं तो अनाज की भारी किल्लत होने से देशी बीजों के बजाए दोगले (हाइब्रिड), नपुंसक (जेनेटिकली मॉडिफाइड) बीजों से उत्पादन को कृत्रिम रूप से बढ़ाया जा रहा है जिससे खतरनाक बीमारियां आ रही हैं। चेतना समाप्त हो रही है।
इसी चेतना समाप्ति से समाज में बलात्कार और नारी शोषण लगातार बढ़ रहे हैं। छोटी – छोटी बच्चियां अब घर में भी सुरक्षित नही हैं।
महर्षि वाग्भट्ट कहते हैं जिस समाज में काम, क्रोध, भय, लोभ से अर्थ उपार्जित किया जाता है वो जल्दी ही अनर्थ बन जाता है।
इसलिए महर्षि वाग्भट्ट के बताए मार्ग को समझकर हमे अर्थ रूपी संपदा एकत्रित करनी चाहिए ना कि उसे नष्ट करना चाहिये।
“धार्यति इति धर्म:”
महर्षि वाग्भट्ट के सूत्र की जिस कार्य को करने से धर्म, अर्थ, और काम की पूर्ति हो, मनुष्य को उस मार्ग पर चलकर मोक्ष रूपी अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए यही मानव जीवन का विकास है और जिस कार्य से इनमें से किसी एक कि भी हानि हो उसे कदापि नहीं करना चाहिए। पिछली कड़ी को आगे बढ़ाते हुए एक नए संदर्भ में इसी गूढ़ रहस्य को समझने का प्रयास करते हुए आगे बढ़ते हैं।
“धार्यति इति धर्म:”
अर्थात जो धारण किया जाता है वो धर्म है। जो जो गुण, कर्म और स्वभाव मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए उचित होते हैं उनको धारण करने को धर्म की संज्ञा दी गयी है।
इस समूल जगत में सभी चीजें परिवर्तनशील हैं अर्थात कुछ भी सनातन नहीं है। सनातन वो है जो था, है और रहेगा।
बस एक चीज़ सनातन है और वो है स्थान । स्थान सदैव सनातन है जैसे मैं काँचीपुरम रहता हूँ तो काँचीपुरम का स्थान पहले भी था, आज भी है और कल भी रहेगा, उसका भूगोल बदल सकता है किंतु स्थान नहीं। जैसे काँचीपुरम के पास बहने वाली पालर नदी बदल सकती है, पेड़ – पौधे, वनस्पति बदल सकती है, जीव – जंतु, मनुष्य सब बदल सकते हैं किंतु काँचीपुरम जहां था वहीं रहेगा।
अर्थात इस जगत में स्थान ही सनातन है। और उस स्थान के भूगोल (पेड़-पौधे, वनस्पति, जीव जंतु, नदियां, पहाड़) को बचाने के लिए ऋषियों ने भाषा, भूषा एवं भोजन रूपी “संस्कृति” का निर्माण किया। और इस संस्कृति की रक्षा के लिए कुछ नियम बनाये जिन्हें “संस्कार” कहा गया।
अपने क्षेत्र के भूगोल को बचाने के लिए संस्कृति है और संस्कृति को बचाने के लिए संस्कार है और यही धर्म है। लाखों वर्षों से धर्म के इसी सरल सूत्र को अपनाते हुए हमने अपना जीवन यापन किया है किन्तु गोरी चमड़ी और म्लेच्छों के 900 वर्षों की गुलामी को भी हम झेल गए और अपने धर्म का विनाश नहीं होने दिया, किन्तु सांवली चमड़ी की गुलामी में अपने सनातन धर्म का दम अब घुटने लगा है।
धर्म को हमने सिर्फ पूजा पाठ, और पूजा करने की पद्धति तक ही सीमित कर दिया और इससे ही धर्म की बड़ी हानि हुई। जबकि धर्म तो अपने -अपने सुंदर भूगोल को बचाने और विशिष्ट पहचान बनाये रखने का साधन है।
जैसे आयुर्वेद की भाषा में समझें तो काँचीपुरम में रहते हुए अगर मेरे भूगोल के अनुसार मेरी कफ प्रधान प्रकृति है तो मेरा कर्म और दिनचर्या कफ को संतुलित करने वाली होनी चाहिए। इसलिए मेरे ऋषियों ने मेरा भोजन, मेरी भूषा, मेरे भूगोल अनुसार बनाई। और अगर आप तमिलनाडु में कहीं और रहते हैं तो आपकी प्रकृति ऊष्ण प्रदेश होने के कारण पित्त प्रधान होगी और समुद्र किनारे रहने के कारण उसमें वात अर्थात वायु का भी प्रभाव होगा जिससे आपके बुजुर्गों ने आपका भोजन और भूषा आपके भूगोल अनुसार तय किया।
इसलिए धर्म रक्षा हेतु आपकी संस्कृति और मेरी संस्कृति थोड़ी भिन्न होगी किन्तु धर्म एक ही होगा अपने स्थान की रक्षा करते हुए अपनी रक्षा करना।
इसी भूगोल यानी प्रकृति अनुसार अगर में धर्म पालन करूँ तो मैं कभी रोगी नही बनूँगा और अगर गलती से कोई रोग आ भी जाये तो अपनी प्रकृति और भूगोल अनुसार अपने भूगोल की औषधि लेकर फिर स्वस्थ हो जाऊंगा। किन्तु यूरोप और अमरीकी संस्कृति से निकली अंग्रेजी मान्यताएं और दवाएं क्या हमें स्वस्थ और निरोगी रख सकती हैं क्या?
क्या उनकी जीवनशैली, मान्यताएं और दवाएं मेरे धर्म अनुकूल हैं या अधार्मिक हैं।
किन्तु क्या हम आज उस धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं या उसका अर्थ जाने बिना ही अधर्मी हो गए हैं। मेरा धर्म इस पृथ्वी पर पैदा होने वाले हर व्यक्ति को नितांत वैज्ञानिक बनाता है अर्थात अगर में धार्मिक हूँ तो वैज्ञानिक भी हूँ और अगर में अधार्मिक हूँ तो अवैज्ञानिक हूँ।
आज हमने अपने जीवन से धर्म को विमुख कर दिया है और जीवन से सुख और शांति चली गयी है। और जिस विकास के मार्ग से सुख और शांति चली जाती है वो विनाश में परिवर्तित हो जाता है।
आज नौकरी के लालच में बच्चे अपनी भाषा, भूषा और भोजन रूपी संस्कृति से हटकर ग्लोबल ( खाना बदोश) यानी दर – दर की ठोकर खाने वाले बन रहे हैं। जिनका अपने धर्म यानी विज्ञान से कोई सरोकार नहीं है। और जब कोई व्यक्ति किसी एक स्थान से हटकर दूसरे पर जाता है तो उसे उस स्थान से कोई लगाव, भावना नहीं होती और वो कथित विकास में उस भूगोल का अपने कुत्सित स्वार्थ में विनाश कर देता है।
आज की सरकारें लोगों को उनके मूल स्थान से निकाल कर दूसरे स्थान पर भेजकर समस्त भूगोल के विनाश में लगा रही हैं और धर्म का नाश दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है।
एलोपैथी चिकित्सा जो यूरोप से आई उसे पूरे भारतवर्ष पर थोपा जा रहा है, अंग्रेजी भाषा जो यूरोप से आई उसे थोप कर भाषायी प्रदूषण फैलाकर अनेकों भाषाएं और बोलियों का नाश करा जा रहा है, पेंट कमीज को स्टैण्डर्ड बनाकर देश की वेशभुषा को छिन्न – भिन्न किया जा रहा है, जीवन यापन के सरल कार्यों को छोड़, रात- रात भर जागकर काल सेन्टर रूपी विदेशी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के चक्कर में युवा पीढ़ी को बर्बाद किया जा रहा है, मनोरंजन के स्वदेशी गीत संगीत को छोड़ नग्नता और फूहड़, कानफोड़ू संगीत से बदला जा रहा है, और ना जाने क्या क्या।
आज इस लेख के माध्यम से धर्म के मूल को समझकर अपने जीवन की चर्या, जीवनयापन के तरीके अपनी भाषा, भूषा और भोजन को धर्म से जोड़ने का प्रयास करें।
और अंत में धार्मिक होना नितांत वैज्ञानिक कर्म है, शर्म नहीं।
“काम” को समझे मनुष्य
महर्षि वाग्भट्ट के सूत्र कि जिस कार्य को करने से धर्म, अर्थ और काम की पूर्ति हो, मनुष्य को उस मार्ग पर चलकर मोक्ष रूपी अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए। यही मानव जीवन का विकास है और जिस कार्य से इनमें से किसी एक कि भी हानि हो उसे कदापि नहीं करना चाहिए। पिछली कड़ियों में धर्म एवं अर्थ को समझने का प्रयास करते हुए आज काम को समझते हुए इस कड़ी को पूर्ण करते हैं।
धर्म के साथ अर्थ को अर्जित करने की पूर्णता काम है। काम का अर्थ है भौतिक शरीर की इन्द्रियों को मर्यादा में रहते हुए सुख देना।
उदाहरण के रूप में समझें तो धर्म के साथ अर्जित अर्थ द्वारा पृथ्वी के तीन रत्नों – अन्न, जल और सुविचार को भोगना ही काम है। किंतु आज तीनों के दूषित होने से काम अर्थात सुख अब दुख में परिवर्तित हो गया है।
महर्षि वाग्भट्ट कहते हैं कि धर्म, अर्थ और काम के द्वारा ही मनुष्य जीवन के पूर्ण फल अर्थात मोक्ष की प्राप्ति होती है। किंतु आज हमने काम का गलत अर्थ निकाला है तो मोक्ष कैसे प्राप्त होगा। मोक्ष का अर्थ है, मोह का क्षय होना अर्थात जीवन से पूर्ण तृप्त होकर जीवन मृत्यु के चक्र से निकलना ही मोक्ष है।
जैसे जब कोई व्यक्ति धर्म से अर्जित अर्थ को जीवन के उपभोग में व्यय करे तो उसे काम रूपी सुख मिलता है, किंतु जब उसी सुख की अति करे वह उपभोग भोग में परिवर्तित होकर दुख का कारण बनता है। और आज हम धर्म के मार्ग को छोड़ अधर्मी होकर अर्थ का अनर्थ करके काम का उपभोग छोड़कर कामी होकर भोगी बनकर अनंत दुखों की ओर अग्रसर हो गए हैं।
एक सरल उदाहरण से उपरोक्त कठिन बात को सहज रूप में समझा जा सकता है – पीढ़ी दर पीढ़ी कृषि कार्य करने वाला कृषक जो प्रकृति से धर्म अर्थात बैलों द्वारा खेत को जोतकर, गोबर गौमूत्र की खाद लगाकर सभी जीवों एवं सूक्ष्म जीवों का भरण पोषण करते हुए समाज के जुड़े हुए लोगों (लुहार, कुम्हार, सुनहार, धोबी, जुलाहों आदि सहयोगी) का हिस्सा देकर जो अर्थ रूपी धन मिलता था उससे जीवन के काम रूपी भोजन, वस्त्र, घर, संतान आदि का उपभोग करते हुए सुख की प्राप्ति करता था। किंतु आज वही कृषक ने अधर्म का मार्ग चुनते हुए अपने खेतों में बैलों के स्थान पर ट्रेक्टर रूपी भूमि के मित्र जीव एवं सूक्ष्म जीवी हत्यारा का प्रयोग करते हुए यूरिया, डी ए पी एवं जहरीले कीटनाशकों का बर्बरता से प्रयोग करके, अर्थ को ट्रेक्टर की मासिक किश्त, निशुल्क मिलने वाले गोबर गौमूत्र की खाद को छोड़कर बेहद महँगे यूरिया, जहरीले कीटनाशकों में अपव्यय करके अर्थ का अनर्थ किया और फिर दूध, दही रूपी आरोग्य को छोड़कर गांव के सरकारी शराब ठेकों से अपने लिवर को खराब करके, बीमार पड़कर काम रूपी सुख छोड़कर शराब का कामी बनकर, यूरिया कीटनाशकों से दूषित जल से कैंसर रूपी मृत्यु का भोग करके अनंत दुखों की तरफ जीवन को मोड़ दिया।
आज यही कृषक की कहानी हर वर्ग के साथ हुई है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र (जो नीचा नहीं होता) सभी वर्णो ने आज अधर्म का मार्ग चुनते हुए, भ्रष्टाचार से कमाए अर्थ से अनर्थ करके, भोगी और कामी (जो सभी उपभोग करने वाली वस्तुओं को नष्ट कर दे) बनकर सिर्फ दुखों की ओर अग्रसर हुए हैं।
अगर हम गाय के उदाहरण से समझें तो काम अर्थात उपभोग को और सरलता से समझा जा सकता है। गौमाता जिस स्थान पर चरती है वहां घास को सिर्फ ऊपर से काटती है कभी भी भैंस की तरह जड़ से नहीं उखाड़ती और लगातार चलती है कभी एक स्थान पर भैंस की तरह देर तक नहीं रुकती। जिससे वो स्थान कभी भी घास विहीन ना हो और उसे नियमित घास मिले। यही उपभोग है।
किन्तु आज हम भैंस की तरह एक ही चीज के पीछे पड़कर उसे समूल नष्ट करने में लगे हैं, यही भोग है जो विनाश का कारण है।
आज का राजतंत्र देश की समस्त प्राकृतिक संपदा को समूल नष्ट करके पूरी प्रजा को कामी बना रहा है। पहले समय में विवाह का बड़ा प्रयोजन श्रेष्ठ संतान उत्पत्ति होकर वंश वृद्धि था, जब पति – पत्नी श्रेष्ठ संतान के लिए काम में लिप्त होकर शरीर का उपभोग करते थे जिससे उनके शरीर की रक्षा के साथ अच्छी संतान प्राप्ति था। किंतु आज विवाह में संतान उत्पत्ति कोई विषय ही नहीं है और जब पति – पत्नी में संतान कोई विषय नहीं है तो वो सिर्फ अपने भैतिक सुखों के लिए काम से कामी हो गए, ना सिर्फ अपने शरीर का नाश किया अपितु भविष्य में गलती से सन्तान हो भी जाये तो वो भी दूषित, अपरिपक्व वीर्य और रज से ऐसी संतान हो जो बीमारियों से भरी हो। आज जनमानुगत बीमार बच्चे इसलिए हो रहे हैं क्योंकि उनके माता पिता कामी हैं। ऐसे ही बीमार बच्चे आगे चलकर व्यभिचारी, बलात्कारी और चेतनविहीन बनते हैं।
इसलिए आज महर्षि वाग्भट्ट के सूत्र, जिसमें काम का सच्चा अर्थ बताया है और भी प्रासंगिक और समझने वाला हो गया है। शायद इसलिए ही अष्टांग हृदयम के प्रारंभ में ही वो धर्म, अर्थ और काम का महत्व समझाते हुए आगे अपना महाकाव्य लिखते हैं।