सत्तर वर्षों से भारत देश के लोगों को एक आस थी कि भारत में कोई ऐसी सरकार बने जो सम्पूर्ण गऊरक्षा कर सके. भारत वासियों कि इसी आस ने नरेन्द्र मोदी को गुजरात से दिल्ली पहुँचाया. पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेई तक इस दिशा में असफल हुए. पंडित नेहरू तो मुकर गए थे. वाजपेई की चली नहीं थी. चन्द्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी और पी आर संगमा ने तो विद्रोह ही कर डाला था. आज वही चन्द्रबाबू नायडू नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की गोद में बैठे राजनीति की चुस्की ले रहे हैं.
पी आर संगमा तो सिधार गए, लेकिन असम की स्थिति गऊरक्षा के विषय पर वहीं है. ममता का भी विचार अभी तक नहीं बदला है. अभी – अभी मैं पश्चिम बंगाल के प्रवास से वापस आ रहा हूँ. बिहार, ओड़िसा और झारखण्ड की लगभग सभी गऊ प्रजातियों को ममता और पश्चिम बंगाल की नीति ने डकार लिया है. स्थितियां बदतर है. दिन-दहाड़े कसाई गोवंश को उठा कर काटने ले जाते हैं. गोप्रेमी मूक देखते रह जाते हैं. ओड़िसा और झारखण्ड से गाय से लदी ट्रकें जब बंगाल की सीमा में प्रवेश कर जाती है तब उन्हें कोई माँ का लाल हाँथ भी नहीं लगा सकता. सीमा के पुलिस 3 हजार रुपये ट्रक बंगाल में घूसाने की फी वसूलते मैंने अपनी आँखों से देखा है. जब की झारखण्ड में भाजपाइयों का दबदबा है.
प्रश्न उठता है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार गऊरक्षा के मामले में इतनी कमजोर क्यों है? दो मुख्य कारन सामने स्पष्ट होते हैं. 1) गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर परिकर ; जो गोवा वासियों को गऊ मांस खिलाने के लिए गोवा के बाहार से गऊ मांस आयात करते हैं. नरेंद्र मोदी ने उन्हें देश का रक्षा मंत्री बनाया था. जो नेता अपने राज्य में गऊ की रक्षा करने की नियत नहीं रखता, भाजपा की सरकार में वह केन्द्रीय रक्षा मंत्री बनाया जाता है. माना की मनोहर सीधे – साधे सरल नेता हैं, यहाँ पर उनकी सादगी किस काम की ? गोवा के सरकारी बुचडखाने में 176 शुद्ध हल्लीकर बैलों की जैसी दुर्गति इन्होंने कराई, इसे भूला नहीं जा सकता है. मैंने स्वयं वहां जाकर इसका निरीक्षण किया था. उलटे गोरक्षकों को फ़साने का घिनौना खेल खेला था.
2) महाराष्ट्र में मुख्य मंत्री देवेन्द्र फडनवीस है. इन्होने गोमांस खाने को सरल कर दिया है. गोहत्या बंदी वाले कानून में गोमांस रखना भी अपराध था. अब केवल गो काटना प्रतिबंधित है. गोमांस खाना और गोमांस को घर – दूकान में रखना अपराध नहीं है. आज भी मुंबई में 350 से भी अधिक गोमांस बेचने की दूकानें खुल्लम – खुल्ला चल रहा है. गोरक्षक दल से मिली जानकारी के अनुसार आज भी मुंबई में 3 हजार से 4 हजार गोवंश प्रतिदिन काटे जाते हैं. 3 हजार नाईजीरीयन परिवार हैं, जिन्हें प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2 किलो गोमांस चाहिए. बढ़ते नाईजीरीयन पर भी फडनवीस का कोई अंकुश नहीं है.
ये दोनों भले ही प्रत्यक्ष रूप से गऊहत्या नहीं कर रहे हैं, लेकिन इनकी क्षत्रछाया में, इनकी नीति के कारन गोहत्या हो रही है, इसलिए इन दोनों भाजपाई मुख्यमंत्रियों को कसाई होने की संज्ञा से कैसे मुक्त कर सकते हैं? क्या नरेंद्र मोदी इस पर कोई सफाई दे सकते हैं ? ऐसी ही व्यथा और राज्यों की भी है. कहावत है “खुद गुरूजी रसगुल्ला खाएं, दूसरों को परहेज बताएं”. तभी तो समाजवादी पार्टी के संसद जावेद अली खान ने डॉ सुब्रमनियम स्वामी द्वारा लाये गए निजी गोरक्षाबिल पर सरकार को जम कर धोया. जैसे – गोरक्षा के नाम पर वोट मांगने वाले भाजपाइयों के मुख पर कालिख पोत डाली. इस निर्लज लोकतंत्र में संसद के पास उत्तर के शब्द नहीं थे. सरकार खुद ही सोचे कि कैसे आस्था रहेगी लोकतंत्र पर हमारी?
दुःख तब होता है जब भाजपा के सांसदों द्वारा दिए गए अभीभाषण को भी कोई उत्तर नहीं. कितनी निर्लज हो गयी है यह सरकार. अगले अंक में आप पढेंगे कुछ और सांसदों का गोरक्षाबिल पर अभिभाषण. इस सम्पादकीय लेख में मैं नरेंद्र मोदी और उनकी निर्लज सरकार को एक सलाह देता हूँ – भारत 23 लाख वर्षों से “गऊमाँ” की धूरी पर अपने इतिहास को संभाल कर रखा है. 70 वर्षों से धोखा – ही धोखा हो रहा है. लेकिन अब भारत का युवावर्ग इस विषय को आत्मसात कर चूका है. एक बोखलाहट भरी उबाल उफनने को तैयार है. जिस दिन युवाओं के सब्र का बांध टूटा, विकास के नाम पर चलने वाली सरकार अचानक रेत के नकली महल की भांति गिर जायेगा. दस्तावेजों को संभालने के लिए रास्ते भी नहीं बचेंगे.
इसका दूसरा पहलू भी है. यदि नरेंद्र मोदी ने “गऊरक्षा” को पूर्ण कर डाला तो निश्चित लगता है कि – नरेंद्र मोदी को उनके जीवन तक सत्ता से कोई बेदखल नहीं कर सकता. भारत की जनता उन्हें नोबल से भी ऊँचा पुरस्कार दे सकती है. जो अतुलनीय होगा.