70 वर्षों से 94% लोग चाहते हैं “गऊरक्षा”; कैसा निर्लज लोकतंत्र?
पृथ्वी पर देवता और दानवों का बहुत पुराना इतिहास रहा है. इन दोनों को यदि “वेद” की दृष्टि से समझने का प्रयास करें तो स्पष्ट है की जो प्रकृति को सुरक्षित रखने के पक्ष में थे वे देव कहलाये और जो प्रकृति का अनैतिक रूप से दोहन और नष्ट करने के पक्ष में थे, वे दानव कहलाये.
यदि देव और दानव को इस परिभाषा से समझें, तो आज भी दो प्रकार के लोग हैं. एक जो प्रकृति को सुरक्षित रखने के पक्ष में हैं और दुसरे जो प्रकृति को अभी तक नहीं समझ पा रहे हैं. अत: आज भी देवों और दानवों में वही संग्राम की स्थिति है जो सदियों पूर्व थी.
इस लेख में “गऊमाँ” को केवल इतना समझा जाए कि वह प्रकृति के संतुलन में सबसे कारक जीव है. क्योंकि उनके द्वारा प्रदत गोमय (गोबर) इस पृथ्वी का शुद्ध भूमि तत्व है. उनके द्वारा गोमूत्र शुद्ध वायु तत्व है और क्षीर (दूध) शुद्ध जल तत्व है. इसी आधार पर गोमाता पृथ्वी को सबसे ज्यादा संतुलित करने वाली प्राणी है. यानि जो लोग “गऊमाँ” की रक्षा में लगे हुए हैं, उनमें देवत्व का भाव है. उनके शरीर में देव होने की तरंगें अधिक है. इसके विपरीत के लोगों में दानवत्व की तरंगें अधिक है.
“गऊमाँ” की रक्षा का भाव आज चरम पर है. इसे मैं आज भी देवता और दानवों के बीच की लड़ाई ही मानता हूँ. क्योंकि लड़ाई के भाव वही है. रूप बदला है. इसलिए वर्तमान की सरकार यदि “गऊमाँ” की रक्षा के पक्ष में नहीं है या वह आवश्यक विषय नहीं मानती, तो यह भी दानवों की सरकार है. क्योंकि वे प्रकृति की संतुलन और उसकी रक्षा के पक्ष में खड़े लोग नहीं हैं.
भारत के दबंग और वरिष्ट राजनीतिज्ञ डॉ. सुब्रमनियम स्वामी ने संसद में “गऊमाँ” की रक्षा का निजी बिल ले कर आये, बहस भी हुई और उसे वापस भी ले लिया. यह भारतीय राजनीति में समझ से बाहर है की यह निर्णय किसके पक्ष में हुआ है? लेकिन इतना तय लगता है की यह “गऊमाँ” की रक्षा की दिशा में एक रोड़ा है. इसका आधार भी स्पष्ट है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन के पिछले 25 वर्षों के दर्शन को पढ़ा जाये तो स्पष्ट होता है की उनके पास “गऊमाँ” की समझ नहीं के बराबर है. यदि होता तो वे गुजरात में मुख्य मंत्री रहते हुए “गऊमाँ” के संवर्धन के स्थान पर होलिस्तियन / फ्रीजियन लाने का निर्णय नहीं लेते. यह अलग बात है की भारत के संतों का उन पर इतना प्रभाव है की तगड़े हस्तक्षेप के बाद अपने निर्णय को बदला. थोड़ी देवत्व की बुद्धि आई.
यह भी गौर करने लायक है की गुजरात में पहले से ही गीर और कांकरेज नाम की दो उन्नत नस्लें अमरीका और यूरोप में डंका बजा रही हैं. इन दोनों प्रजातियों की मांग विश्व के सभी राष्ट्रों में है. उनके क्षीर (दूध) की गुणवत्ता और अधिकता को संसार के लोग लोहा मानते हैं. लेकिन नरेंद्र मोदी को पता नहीं था. प्रतीत होता है कि वे आज भी “गऊमाँ” को केवल भौतिकता के आधार उपयोगी जीव मात्र मानते हैं. जबकि यह संसार भौतिकता बहुत कम और लगभग सम्पूर्ण तरंगीय है. क्वांटम फिजिक्स से यदि समझें तो यह 99.9999996% तरंगीय है. इस विषय का स्पष्टिकरण कभी सम्पादकीय लेख में लिखूंगा. इस आधार पर नरेंद्र मोदी को “गऊमाँ” की समझ केवल 0.0000004% हो सकता है. ऐसे में हम भारत के लोग “गऊरक्षा” के सम्बन्ध में वर्तमान सरकार से भी क्या आशा कर सकते हैं?
भारत में “गऊग्राम गोमंगल” यात्रा निकाली गई. 14 करोड़ लोगों ने गऊरक्षा के पक्ष में हस्ताक्षर किये. विश्व रिकार्ड हुआ. अभी तक इतना बड़ा हस्ताक्षर अभियान नहीं हुआ था. आज वह राष्ट्रपति भवन में धूल खा रहा है. ऐसे अभियानों से स्पष्ट हो चूका है कि भारत की 94% जनता “गऊरक्षा” के पक्ष में है. किसी प्रकार से “गऊरक्षा” का निजी बिल संसद में लाया भी गया, बहस भी हुई लेकिन वापस लिया गया. क्या यह लोकतंत्र की निर्लज्जता नहीं है. इस लोकतंत्र में एक व्यस्क लड़की के साथ बलात्कार होता है, कानून बदले जाते हैं. एक ईरिक्सा से दुर्घटना होती है कानून बदला जाता है. और इसी लोकतंत्र में 70 वर्षों से लगभग 3000 करोड़ “गऊमाँ” की निर्मम हत्या की गई, और वह भी 86% गऊमांस विदेशियों (निर्यात) को खिलाने के लिए.
जिस “गऊमाँ” के साथ 94% लोगों की आस्था जुडी है, संसद में 70 वर्षों से बहस का विषय तक नहीं बन रहा था. मुश्किल से डॉ सुब्रमनियम स्वामी द्वारा निजी बिल आया और बहस के बाद उसे वापस लिया गया. यह राजनैतिक चाल समझ से परे है. शायद श्रीराम मंदिर निर्माण की तरह “गऊरक्षा” के विषय को भी चुनावी प्रक्षेपास्त्र बनाकर चुनावी नारों के मिसाइल पर चढाने का प्रबंध हो रहा है. क्योंकि निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अब 2019 का लोकसभा चुनाव श्रीराम मंदिर निर्माण के रथ पर बैठ कर नहीं जीत जा सकते.
भारत की तीन पीढ़ियों ने ऐसी निर्लज लोकतंत्र के साथ आस्था रखी है. आज 70 साल हो गए. प्रश्न है कि हम भारत के लोग कब तक ऐसी निर्लज लोकतंत्र के साथ जीयें. वर्तमान प्रधानमंत्री इस विषय के अंतिम सतरंज के मोहरे के रूप में थे. जिनपर भारत के लोगों ने विश्वास किया, उन्हें सर आँखों पर बिठाया. लेकिन लगता है कि इस बार भी भारत के लोगों को धोखा हुआ. “गऊरक्षा” के प्रश्न पर नरेंद्र मोदी भी बिकाऊ मोहरे साबित हो रहे हैं. अत: अब निश्चित रूप से दिखने लगेगा कि वर्तमान पीढ़ियां इस निर्लज्ज लोकतंत्र की जड़ों को उखाड़ फेकने की दिशा में आगे बढ़ रही हैं, जिनकी जड़ें आज भी ब्रिटेन में अपने लाभ के लिए पोषित हो रही है.
हम भारत के लोगों को “सत्ता का हस्तानान्तरण” नहीं ; पूर्ण स्वतंत्रता चाहिए. – जय भारत.
Very nice sir, I want to become a good doctor in the cited post.
Join MD Panchgavya
http://www.panchgavya.org